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Saturday, December 14, 2024

 

भूले-बिसरे हिंदी लेखक

जहूरबख्श : ‘सागर के प्रेमचंद

[१२ मई १८९७ - ८ नवं. १९६४]

भाषा भी और ज़ुबान भी – दोनों स्त्रीलिंग होती हैं | भाषा होती ही है मात्री-भाषा, जो माँ होती है, जिससे हम भाषा सीखते हैं | कोई पित्री-भाषा कहीं नहीं होती, क्योंकि कहीं भी वह माँ के दूध के साथ ही बच्चे में उतरती है | भाषा और ज़ुबान दोनों का सम्बन्ध बोली से होता है, और हम माँ की बोली सुनकर ही भाषा सीखते हैं, और शुरू में बचपन में बहुत साल तक  हम  भाषा को ज़ुबान से ही बोलकर सीखते हैं – अपनी माँ से | इसीलिए भाषा की देवी सरस्वती हैं, जो माँ की तरह सबसे पहले पूज्य हैं, जिससे हम बोलना सीखते हैं | इसलिए जीवन में हमारा सबसे पहला और मूल्यवान धन भाषा ही है | वह हमारे लिए माँ का ही रूप है | भाषा की ध्वनि से पहले कुछ भी नहीं – जैसा बाइबिल का पहला सूत्र भी कहता है | गाँव के अनपढ़ लोग जीवन-भर भाषा का पूरा प्रयोग बोलकर ही करते हैं | पढ़ने-लिखने वाली भाषा के बिना भी जीवन में उनका सारा काम चलता रहता है | उनको न किताब की ज़रुरत होती है, न व्याकरण-ज्ञान की | भाषा मूलतः सुनने-बोलने और समझने की ही चीज होती है | साहित्य में कविता और नाटक के रचनाकारों को भी इसका विशेष महत्त्व समझना चाहिए | इसीलिए साहित्य में ये दोनों विधाएं अन्य विधाओं से अधिक प्रभावकारी होती हैं | बोलने वाली विधाएं लोक-विधाएं होती हैं – जैसे बंगाल का बाउल-गीत |

इसी प्रसंग में उर्दू और हिंदी की बात सामने आती है | बोलचाल में इन दोनों के बोलने वाले इनका समान रूप से प्रयोग करते हैं | बोलचाल में हिंदी-उर्दू में कोई भेद नहीं होता | जब साहित्य में भाषा में सजावट का सवाल उठता है, तब वहां फिर लिखावट और व्याकरण सामने आते हैं | लिखावट या लिपि  इसलिए कि उसमें स्थायित्व आ सके, और व्याकरण इसलिए कि उसमें सजावट के तौर-तरीके तय हो सकें | हिंदी और उर्दू के तो व्याकरण भी एक ही हैं, केवल लिपि अलग है, जैसे आजकल शौक़ीन लोग हिंदी को रोमन लिपि में लिखने लगे हैं!

हिंदी-उर्दू भाषा और साहित्य-लेखन के इसी प्रसंग में ये दो नाम स्मरणीय हैं – प्रेमचंद और ज़हूरबख्श | प्रेमचंद ज़हूरबख्श से १७ साल बड़े थे | दोनों ने साहित्य-लेखन को जीवन-वृत्ति और शिक्षण को आजीविका के रूप में चुना | लेकिन प्रेमचंद ने साहित्य-लेखन के लिए उर्दू को चुना, और वहीँ ज़हूरबख्श ने हिंदी को | हिंदी का पाठ-क्षेत्र बहुत विस्तृत था इसलिए प्रेमचंद को व्यावसायिक दृष्टि से लिखित उर्दू से हिंदी की ओर आना पड़ा, वहीं ज़हूरबख्श राष्ट्र्धर्मिता का आग्रह लेकर प्रारम्भ से हिंदी में लिखते रहे, और अपने समय के हिंदी-लेखकों की तुलना में प्रचुर हिंदी साहित्य-लेखन किया | प्रेमचंद ने कथा-साहित्य का क्षेत्र चुना, और उसी में पूर्णतः  समर्पित रहे, जिस कारण एक पूरे नव-जागरण-काल के दशकों में फैले युग में उनका पाठक-वर्ग बहुत विस्तृत रहा, और उनकी लोकप्रियता अतुलनीय हो गई | लेकिन प्रेमचंद के युग में ही बहुत से और लेखक हुए जिन्होंने उसी समय में कथेतर विधाओं में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, लेकिन उनको वैसा व्यापक पाठकवर्ग नहीं मिला और वैसी लोकप्रियता मिलनी भी संभव न हुई | उस समय के वैसे लेखकों में ज़हूरबख्श इसलिए विशिष्ट और विशेष रूप से स्मरणीय हैं कि जहाँ प्रेमचंद को लेखक बनने के लिए अपनी ज़ुबान हिंदी छोड़कर उर्दू का हाथ थामना पड़ा, वहीँ उनके कुछ ही बाद ज़हूरबख्श ने शुरू से हिंदी का दामन थामा – क्योंकि साहित्य-लेखन उनके लिए नवोदित राष्ट्रीय चेतना का पर्याय था, जिसका माध्यम हिंदी थी, जिसे प्रेमचंद ने अपने लेखकीय जीवन में बाद में समझा |

यह एक विशेष अर्थवान प्रसंग है, जिसको बहुत सार्थक ढंग से उजागर किया है कानपुर से नियमित प्रकाशित पत्रिका ‘वांग्मय ने ज़हूरबख्श पर प्रकाशित अपने इस महत्त्वपूर्ण विशेषांक में | इसके सम्पादक डा.फ़िरोज़ खान से इस विशेषांक के प्रकाशन-क्रम में मेरी बातचीत हुई थी | इस अंक में ज़हूरबख्शजी का मेरे पिता (शिवपूजन सहाय) पर लिखा ‘बड़े भैया’ संस्मरण भी छपा है | मेरा जन्म भी उसी युग के उत्तरांश में हुआ था, और मैंने उन सब लोगों को, या उनमें से अधिकाँश लोगों को, इन्हीं आँखों से देखा था | प्रेमचंद और प्रसाद के निधन वर्ष के लगभग बीच में मेरा जन्म हुआ था | मेरा लालन-पालन और पठन-पाठन भी उसी युग में हुआ था, जो भारतीय स्वाधीनता-प्राप्ति के स्वर्ण-विहान का समय था | ज़हूरबख्शजी को भी मैंने देखा था जब वे ५० के दशक में पटना आकर मेरे पिता से मिले थे |

‘वांग्मय’ के इस सुरुचिपूर्ण प्रकाशित अंक (३२५ पृष्ठ) का मूल्य २७५/- है | हिंदी-भाषी समाज के लोग देश के अन्य भाषा-भाषी (बंगला, गुजराती, मराठी, तमिल, तेलुगु) समाज के मुकाबले जब अपनी हिंदी भाषा में प्रकाशित पुस्तकों-पत्रिकाओं पर महीने में २००-३०० रुपये भी ( निम्न मध्य-वर्ग के एक दिन के राशन-खर्च से भी कम) नहीं खर्च कर सकते, तब उनके साहित्य का विकास और उन्नयन भला कैसे हो? साहित्य जनता के नैतिक उन्नयन के लिए लिखा जाता है, उससे जनता का नैतिक स्वास्थ्य-संपोषण होता है; यदि जनता उसमें ही निवेश नहीं करती तब उस साहित्य का संपोषण भला और कौन करेगा? सरकार से तो साहित्य के संवर्द्धन-संपोषण की उम्मीद की ही नहीं जा सकती, क्योंकि वह तो सरकार के लिए बहुलांशतः अप्रिय विपक्ष ही होता है | लेकिन जनता का तो सबल पक्षधर होता है साहित्य, फिर जनता में साहित्य के प्रति ऐसी अवज्ञा-भावना क्यों? आप सर्वेक्षण कर लीजिये अपने-आस-पड़ोस का – कितने परिवार इस प्रकार पुस्तकें-पत्रिकाएं खरीद कर अपनी भाषा के साहित्य का संपोषण-संवर्द्धन करते हैं? तब इस द्रुतगामी सांस्कृतिक अवनति और पतन का रोना क्यों?

ज़हूरबख्श ने स्वयं अपने लेखन में इस तरह के सवाल उठाये हैं | आप ‘वांग्मय’ का यह अंक एक बार पढ़कर देखिये तो | ज़हूरबख्श पर प्रकाशित ‘वांग्मय’ के इस विशेषांक के बहाने इस ज़रूरी सवाल पर आपका ध्यान खींचना ही मेरा उद्देश्य है | विशेषांक में ज़हूरबख्श की अनेक रचनाएँ भी प्रकाशित हैं जिनकी प्रांजल हिंदी शैली देखकर आप दंग रह जायेंगे | बस उसकी एक लम्बी (सच्ची) कहानी ‘एक वेश्या की आत्मकथा (१३ पृष्ठ) पढ़िए – आप जान जायेंगे ज़हूरबख्श का लेखकीय व्यक्तित्त्व कैसा था | उस कहानी को पढ़कर मुझको राजा राधिकारमण के उपन्यास ‘राम-रहीम या प्रेमचंद के उपन्यास ‘सेवासदन याद आये | वह कहानी एक लघु-उपन्यास ही है जिसमें – एक लम्बी कहानी की परिधि में ही - उस समय का हिन्दू-समाज अपनी सम्पूर्ण गर्हित नग्नता में चित्रित है | उस चित्र की सत्यता आज भी मिटी नहीं है, उसके रूप चाहे जितने बदल चुके हों |

ज़हूरबख्श का जन्म मध्य प्रदेश के सागर के पास के एक गाँव में हुआ था | जबलपुर में शिक्षा और सुदीर्घ अध्यापन-कर्म | जीवन-भर अध्यापन किया | माता की प्रेरणा पर १९१४ में हिंदी में लिखना शुरू किया | सागर में १९३५ में जो मकान बनवाया उसको उनके बहुमूल्य पुस्तकालय के साथ १९६१ में आतताइयों ने दंगे में जला दिया | आखिरी दिन भोपाल में बीते और वहीँ नवम्बर, १९६४ में इंतकाल हुआ | और अगर आप उनके घर की उस भयंकर आगजनी का आँखों-देखा हाल जानना चाहते हों तो इसी अंक में ज़हूरबख्श पर भीष्म साहनी का खून सर्द कर देने वाला संस्मरण पढ़ लीजिये |

‘वांग्मय के कई सुन्दर विशेषांक निकले हैं | मैंने तस्वीरें लगा दी है | बाकी अब आपकी सोच-समझ!    

(C) मंगलमूर्ति




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