कविता का
झरोखा : ८
आंखें मेरी सजनी की
सूरज-सी
बिलकुल
नहीं
आंखें
मेरी
सजनी
की,
मूंगा
कहीं
ज्यादा
लाल
टेस
है
उन
अधरों
से,
हिम
जो
उज्वल
है
तो
गंदुम
हैं
उरोज दो
उसके,
केश
तार
हों,
तारों
के
हैं जाल
केश सब
उसके
।
देखे
हैं
गुलाब
फूले-फूले-से
लाल
और
श्वेत
पर
गालों
में
उसके
वो
गुलाब
कहां दीखे हैं
इत्रों
से
मादक
सुगंध
फैली
हैं इधर-उधर
पर
आती
कहां
है खुशबू
वैसी
उसकी
गर्म
सांसों
से।
बोल
सुहाने कितने
उसके,जानता
हूं
मैं फिर
भी
होते
हैं
संगीत
के
स्वर तो
उससे
कहीं
मधुर ही
देखा
नहीं
किसी
देवी
को कभी विचरते मैनें
मेरी
सजनी
इठलाती
फिरती
है
धरती
पर
ही
फिर
भी
ईश्वर
की
सौगंध
अलबेली
है
इतनी
वो
जितना है
कुछ
भी
जिसकी
तुलना
उससे
झूठी
है।
[‘माइ मिस्ट्रेसेज़
आइज़’ : सॉनेट १३०]
शेक्सपियर
[1564-1616 ]
‘रिनांसां’ शब्द फ्रेंच भाषा का है जिसका
मूल अर्थ ‘पुनर्जन्म’ होता है, कुछ हिंदी के ‘नव-जागरण’ की तरह – ‘नव-प्रभात’ के
अर्थ में | यह ‘नव-जागरण’ १४वीं से १७वीं
शताब्दी के काल में इटली से पूरे यूरोप में प्रचलित हुआ जब प्राचीन ग्रीक
और रोमन संस्कृतियों के अलोक में पूरे यूरोप में एक सामाजिक-धार्मिक- सांस्कृतिक-साहित्यिक
नव-जागरण का उदय हुआ | इस ‘नव-जागरण’ का आलोक फिर ब्रिटेन में भी फैला - स्पेंसर
और शेक्सपियर के पूर्ववर्ती काल में ही | इस ‘नव-जागरण’ का व्यापक प्रभाव १६ वीं
शताब्दी के अंग्रेजी साहित्य पर परिलक्षित होता है – विशेष कर कविता और नाटक के
क्षेत्र में | और काव्य का यह संगीतमय रूप – सॉनेट – काव्य की विधाओं में सबसे
अधिक इस ‘नव-जागरण’ का प्रतिनिधित्व करता है |
शेक्सपियर को उसके ३७ नाटकों के कारण प्रमुखतः नाटककार के रूप में ही जाना जाता है |
लेकिन अपनी कई लम्बी कविताओं – ‘वेनस एंड एडोनिस’, ‘द पैशनेट पिलग्रिम’, ‘ए लवर्स
कम्प्लेंट’ – के अलावा उसने १५४ सॉनेटों की एक श्रृंखला भी रची थी | इनमें पहले
१२६ सॉनेट तो एक युवक मित्र को समर्पित हैं, और अंतिम २८ एक किसी ‘डार्क लेडी’
(‘सांवली प्रेमिका’) के नाम | इन सॉनेटों के विषय भी हैं - नश्वरता, समय, प्रेम,
अविश्वास, आदि | जैसे पहले सॉनेट का विषय है – प्रेम, और इस दूसरे सॉनेट - ‘पुअर
सोल’- का विषय है – जीवन की नश्वरता |

“फिर भी
ईश्वर की
सौगंध अलबेली
है इतनी
वो
जितना है कुछ भी
जिसकी तुलना
उससे झूठी
है।“
दूसरे सॉनेट (१४६) में आत्मा से अपने संवाद में
कवि भौतिक जीवन और दैहिक भोगों की व्यर्थता और
क्षणभंगुरता को इंगित कर अपनी भ्रमित आत्मा से अमरत्व की ओर अग्रसर होने को
प्रेरित करता है –
“बेच व्यर्थता के
क्षण ले
लो मोल
स्वयं अमरत्व
पुष्ट करो अंतरमन को, त्यागो बाहरी समृद्धि,”
शेक्सपियर के नाटकों में भी ऐसे कई गीत हैं जिनमें इस तरह
के विषयों का निदर्शन हुआ है | वस्तुतः जीवन और जगत के वैभव
और विषमताओं का अपने नाटकों और कविताओं – दोनों में,अद्भुत चितेरा था शेक्सपियर !
सॉनेट १४६ में शेक्सपियर ने जीवन की क्षण-भंगुरता को रेखांकित किया है |
अकिंचन
आत्मा
पाप-सनी
मिट्टी
की
तू
है केंद्र अकिंचन आत्मा,
दिशा-भ्रमित तू चक्रव्यूह
में
विद्रोही
शक्तियों
के,
घुलती
क्यों
है भीतर ही, झेलती रहती अभाव तू,
रंग
लेतीं
अपनी दीवारें
महंगे
रंगों
से
तू ?
कीमत
इतनी रक्खी
और
पट्टा
इतने
कम
दिन
का,
क्यों ऐसी
फिजल़ूखर्ची
ढहने वाले इस घर पर ?
कीड़े
हैं ये
तेरे
अतिरेकों
के
उत्तराधिकारी,
चटकर
जायेंगे वे देह, यही होगा तेरा अंत ?
जिओ अरे, अकिंचन
आत्मा,
खोकर अपना सेवक भी,
छीजे
भले
ही वह
पर
भर
लो तुम अपना
भंडार
बेच व्यर्थता
के
क्षण
ले
लो
मोल
स्वयं अमरत्व
पुष्ट करो
अंतरमन
को, त्यागो बाहरी समृद्धि,
भक्षोगी
तुम
मृत्यु, तभी
जीमती
मनुष्यों
को
जो;
मृत होगी
जब
मृत्यु, कहाँ होगी तब मृत्यु कहीं भी ।
[‘पुअर सोल’ : सॉनेट १४१]
चित्र : सौजन्य गूगल छवि-संग्रह (१) जन्म-स्थान (२) स्कूल
आलेख (C) डा. मंगलमूर्त्ति
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[‘कविता का
झरोखा’ श्रृंखला में आगे के सप्ताहों में पढ़ें, टिप्पणियों के साथ – रॉबर्ट हेरिक, जॉर्ज हर्बर्ट, हॉपकिंस, यीट्स,
इलियट आदि की अनूदित कविताएँ ]
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