
रामचरित मानस : पुनर्पाठ -२
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तुलसीदास-कृत
रामचरितमानस
सरल भाषांतर एवं कथा-सूत्र
बाल काण्ड : कथा-सूत्र ६
शिव ने नारद-मोह-प्रसंग की चर्चा करते
हुए पार्वती से कहा – एक शाप के कारण नारदजी कहीं एक स्थान पर नहीं रह सकते थे| सदा घूमते रहते थे| हिमालय के पास गंगा
किनारे एक सुन्दर आश्रम में उन्होंने समाधि लगा ली थी| डर कर इंद्र ने कामदेव
से तप-भंग करने की प्रार्थना की| तुरत रम्भा आदि अप्सराएँ वहां आकर नृत्य करने लगीं पर नारद
अडिग रहे| हारकर कामदेव नारदजी के चरणों पर गिर गया| तब सफल-तप नारद मुनि शिवजी के
पास जाकर अहंकार बघारने लगे| शिवजी ने मना किया कि वे विष्णुजी के सामने ऐसा नहीं करेंगे| लेकिन नारदजी
क्षीरसागर में लेटे विष्णुजी के पास जाकर भी अपनी कामदेव-विजय की वही कहानी
सुनाने लगे| विष्णु को नारद का दर्प-भंग करना आवश्यक लगा| नारद के जाते ही
विष्णु ने स्वर्ग से भी सुन्दर एक माया-नगरी की रचना की| वहां के राजा शीलनिधि की अत्यंत रूपवती
कन्या विश्वमोहिनी का स्वयंवर हो रहा था| नारद जब वहाँ पहुंचे
तो उस कन्या पर मोहित हो गए| उनके मन में समा गया – “हे बिधि मिलई कवन बिधि
बाला”| सोचा विष्णुजी से अपने लिए सुन्दर रूप मांग कर इस परम
रूपवती बाला को वर लूं| प्रार्थना करते ही विष्णुजी प्रकट हो गए| नारद ने कहा – “करहु कृपा करी होहु
सहाई. आपन रूप देहु प्रभु
मोहि, आन भांति नहीं पावों
ओही”| मुस्कुरा कर विष्णुजी
बोले –
जेहि बिधि होईही परम हित, नारद सुनहु तुम्हार|
सोई हम करब न आन कछु , बचन न मृषा हमार|१३२|
प्रसन्न होकर नारद
स्वयंवर में जा बैठे| लेकिन विष्णु ने दर्प-भंग के लिए उनको परम कुरूप बना दिया था
जिसका कोई गुमान नारदजी को नहीं था| सुंदरी बाला आई और
उनके सामने से मुंह बिचकाकर आगे बढ़ गयी| विष्णु स्वयं वहां
सुन्दर राजकुमार बन कर जा बैठे थे जिनके गले में राजकुमारी ने वरमाला डाल दी| शिव के दो गण भी वहां
थे| उन्होंने नारद से
व्यंग्य किया – आप अपना मुंह आईने में
जाकर क्यों नहीं देखते? उदास नारद ने जब सरोवर
के जल में अपना मुहं निहारा तो क्रुद्ध होकर विष्णु को शाप देने चले| विष्णु रास्ते में ही
उसी राजकुमारी के साथ जाते मिल गए| मिलते ही अत्यन्य
क्रुद्ध नारद ने उन्हें शाप दिया –
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा, सोई तनु धरहु श्राप मम
एहा|
कपि आकृति तुम्ह किन्हीं हमारी, करिहहिं कीज़ सहाय
तुम्हारी|
मम अपकार कीन्ह तुम भारी, नारि बिरह तुम होब
दुखारी|१३६.३|
विष्णु ने नारद मुनि
का शाप सहर्ष शिरोधार्य करते हुए उनका मोह-भंग कर दिया| नारदजी को जब सारा
प्रसंग स्पष्ट हुआ तब वे विष्णुजी के चरणों पर गिर पड़े| तब विष्णुजी नारदजी को
क्षमा करके यह कहते हुए चले गए कि आप मन की शांति के लिए जाकर कहीं शिव
का शतनाम जाप करें|
कथा को यहाँ रोकते हुए
शिव ने पार्वती से कहा – इसी प्रकार श्रीहरि प्रभु के अनेक अलौकिक जन्म और कर्म हैं
और उनकी कथाएँ भी अनंत हैं –
हरि अनंत हरि कथा अनंता, कहहिं सुनहिं बहुबिधि
सब संता|१३९.३|
शिव ने पार्वती से कहा – अब मैं तुम्हें प्रभु
के उस अवतार की कथा सुनाता हूँ जो दशरथ-पुत्र के रूप में
अयोध्या में हुआ और जिसे तुमने वन में विरह-व्याकुल भ्रमण करते
देखा था| शिवजी बोले - प्रभु की इस अलौकिक
सृष्टि के आदि जनक-दम्पति हुए थे स्वयंभू मनु एवं शतरूपा| उनके पुत्र हुए
उत्तानपाद जिनके दो पुत्र हुए हरि-भक्त ध्रुव और
प्रियव्रत, तथा एक पुत्री देवहूति
और उसके पति हुए कर्दम मुनि| देवहूति के पुत्र हुए
कपिल जिन्होंने बहुत काल तक राज्य करने के बाद अपने पुत्र को राज्य सौंप दिया और
तप करने सपत्नीक नैमिषारण्य चले गए| हज़ारों वर्षों तक
घनघोर तप करने पर वर मांगने की आकाशवाणी हुई| तब गदगद होकर दोनों
बोले –
दान सिरोमनि कृपानिधि, नाथ कहऊँ सतिभाउ|
चाहऊँ तुम्हहिं समान सुत, प्रभु सन कवन दुराउ|१४९|
प्रसन्नमन प्रभु ने भी
इसका बड़ा सुन्दर उत्तर दिया –
आपु सरिस खोजों कहँ जाई, नृप तव ताने होब मैं
आई|१४९.१|
और प्रभु ने मनु-दम्पति को इन्द्रपुरी
अमरावती में जाकर कुछ दिन भोग-विलास करने को कहा
जिसके बाद वे उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे|
पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा, सत्य-सत्य पन सत्य हमारा|
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना,अंतर्धान भए भगवाना|१५१.३|
इसी प्रकार प्रभु ने, मनु-दम्पति - जो दशरथ और कौशल्या
हुए - उनके पुत्र-रूप में अयोध्या में जन्म लिया.
बाल काण्ड : कथा-सूत्र ७
स्मरण होगा कि शिव ने पार्वती से कहा
था –श्रीहरि विष्णु के
अनेक अलौकिक जन्म और कर्म हैं और उनकी कथाएँ भी अनंत हैं –
हरि अनंत हरि कथा अनंता, कहहिं सुनहिं बहुबिधि
सब संता|
अब शिव पार्वती को एक
और अवतार की कथा सुनाते हैं| कैकय देश में सत्यकेतु
नाम का राजा था जिसके दो वीर पुत्र थे – प्रतापभानु और छोटा
अरिमर्दन| जब प्रतापभानु राजा हुआ तो उसका चतुर मंत्री हुआ धर्मरुचि| प्रतापभानु चक्रवर्ती
राजा हुआ और एक बार शिकार खेलने विन्ध्याचल के घने जंगलों में गया| अचानक उसको एक बनैला
सूअर दीखा| घोड़े पर उसका पीछा करते हुए वह घनघोर जंगल में भटक गया और
सूअर भी एक गुफा में घुसकर गायब हो गया| भटकते हुए थके-प्यासे प्रतापभानु को
जंगल में एक आश्रम दीखा| उसमे एक कपटी साधु बैठा था जो वास्तव में एक राजा था जिसका
राज्य प्रतापभानु ने छीन लिया था| प्रतापभानु तो उसको
नहीं पहचान सका पर साधु ने उसे पहचान लिया| साधु ने अपना नाम
एकतनु बताया और कहा कि मेरा जन्म सृष्टि के आरम्भ में ही हुआ था| राजा का नाम भी
प्रतापभानु है यह उसे तपबल से ज्ञात है| प्रतापभानु की भक्ति
जग गयी तो साधु ने वर देते हुए कहा - ब्राह्मणों के शाप से
बचे रहोगे तो अनंतकाल तक एकछत्र राज्य करोगे| मैं स्वयं तुम्हारे
यहाँ आकर भोजन पकाऊंगा और तुम नित्य एक लाख ब्राह्मणों का भोज
कराओगे जिससे वे तुम्हारे वश में हो जायेंगे| इस बीच मैं चुपचाप
तुम्हारे पुरोहित को हर लाऊंगा, और अभी तुम लौट जाओ, मैं आज से तीसरे दिन
तुम्हारे यहाँ आकर स्वयं तुम्हारा पुरोहित बन कर तुम्हारा यह कार्य सिद्ध कराऊंगा| राजा को उसने वहीं
सुला दिया और इसी बीच उस कपटी साधु का मित्र कालकेतु आया जिसने सूअर बन कर राजा को भटका कर
वहां लाया था| कालकेतु की भी प्रतापभानु से पुरानी
शत्रुता थी| दोनों ने योजना बनाकर सोये में ही घोड़े सहित राजा को रात
में उसके महल में पहुंचा कर रानी के बगल में सेज पर सुला दिया और कालकेतु चुपचाप राजा
के पुरोहित का अपहरण करके ले गया|पुरोहित की जगह पर एकतनु स्वयं सो
गया|सुबह राजा का आ जाना सुनकर प्रजा बहुत प्रसन्न हुई| अब मायावी पुरोहित ने
अपनी योजना शुरू की| राजा ने तुरत एक लाख ब्राह्मणों को भोज पर निमंत्रित किया| मायावी पुरोहित ने
षटरस भोजन पकाया लेकिन उसमें पशुओं और ब्राह्मणों का मांस पकाकर मिला दिया| ब्राह्मणों के भोजन
प्रारंभ करते ही आकाशवाणी हुई –
बिप्र ब्रिंद उठि-उठि गृह जाहू, है बड़ी हानि अन्न जनि
खाहू|
भयऊ रसोई भूसुर माँसू, सब द्विज उठे मानि
बिस्वासू |१७२.४|
तब ब्राह्मणों ने
क्रुद्ध होकर राजा प्रतापभानु को शाप दिया कि तुम्हारे कुल का विनाश हो जाये| संकट में पड़े राजा प्रतापभानु पर आस-पास के राजाओं ने
आक्रमण कर दिया और प्रतापभानु युद्ध में अपने पूरे वंश के साथ मारा गया| फिर कालान्तर में वही
प्रतापभानु रावण हुआ और उसका छोटा भाई अरिमर्दन कुम्भकर्ण हुआ तथा उसका मंत्री
धर्मरूचि रावण का सौतेला भाई विभीषण हुआ|
बाल काण्ड : कथा-सूत्र ८
पिछले आख्यान में शिव ने पार्वती को
प्रतापभानु के रावण के रूप में जन्म लेने की कथा सुनाई थी| पाप से मुक्त होने के
लिए रावण ने भाइयों के साथ घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उनसे वर
मांगने को कहा| तब –
करि बिनती पद गहि दससीसा, बोलेउ बचन सुनहु
जगदीसा|
हम काहूँ के मरहिं न मारें,बानर मनुज जाति दुई बारें|१७६.२|
ब्रह्मा ने उन्हें ऐसा
ही वर दे दिया – कुम्भकर्ण को छः मास
की निद्रा का और विभीषण को श्रीहरि की अनन्य भक्ति का वर दिया| रावण का विवाह मय नामक
दानव की पुत्री मंदोदरी से हुआ| और उसे समुद्र के बीच में त्रिकुट पर्वत पर स्थित
इन्द्रपुरी से भी सुन्दर लंकापुरी का राज्य भोगने का वर दिया| रावण लंका का महाबली, महाप्रतापी और
विद्वान् राजा हुआ| उसने कुबेर को हरा कर उनका पुष्पक विमान जीत लिया| खेल-खेल में कैलाश पर्वत
को भी हाथों में उठा लेता था| मेघनाद उसका महापराक्रमी पुत्र हुआ और दुर्मुख, अकम्पन, वज्रदंत, धूमकेतु, अतिकाय आदि अनेक वीर
उसकी विशाल राक्षसी सेना में थे| रावण का सभी राक्षसों को आदेश था की वे केवल देवताओं की
हत्या करें और यज्ञादि में बाधा डालें| इससे देवताओं में
हाहाकार मच गया| तब पृथ्वी गौ का रूप धारण करके सभी देवताओं के साथ ब्रह्मा
के पास गयी और राक्षसों से त्राण की गुहार लगाई| तब प्रभु की आकाशवाणी
हुई –
जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा, तुम्हहिं लागि धरिहऊँ
नर बेसा|
कस्यप अदिति महातप किन्हां, तिन्हं कहुं मैं पूरब
बार दिन्हां|
ते दसरथ कौसल्या रूपा, कोसलपुरी प्रगट नर
भूपा|
तिन्हं के गृह अवतरिहऊं जाई, रघुकुल तिलक सो चारिउ
भाई|
हरिहऊँ सकल भूमि गरुआई, निर्भय होहु देव
समुदाई|१८६.१-४|
तब ब्रह्मा ने देवताओं
को कहा कि आपलोग अब वानरों का शरीर धारण करके पृथ्वी पर जाएँ और जब श्रीहरि राम के
रूप में अयोध्या में अवतार लें तो उनकी सेवा में लगें| तभी सारे देवताओं ने
वानर रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया और सर्वत्र छा गए|
बाल काण्ड : कथा-सूत्र ९
श्रीहरि प्रभु ने मनु-दम्पति की तपस्या से
प्रसन्न होकर उनको वर दिया था और उनको इन्द्रपुरी अमरावती में जाकर कुछ दिन भोग-विलास करने को कहा
जिसके बाद वे श्रीराम के रूप में उनके पुत्र बन कर जन्म लेंगे|
पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा, सत्य-सत्य पन सत्य हमारा|
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना,अंतर्धान भए भगवाना|
इसी प्रकार श्रीहरि विष्णु ने, मनु-दम्पति - जो दशरथ और कौशल्या
हुए - उनके पुत्र श्रीराम के
रूप में अयोध्या में जन्म लिया| अयोध्या के राजा दशरथ
की उम्र जब ढलने लगी तो कोई पुत्र न होने से वे बहुत दुखी रहने लगे थे| तब उनके राजगुरु मुनि
वशिष्ठ ने उनको पुत्र्येष्टि यज्ञ करने की राय दी| यज्ञ के हवन-कुण्ड से अग्निदेव हाथ में
हविष्यान्न (खीर) लेकर प्रकट हुए| राजा दशरथ ने उसका आधा
भाग कौशल्या को तथा शेष आधा भाग का एक-एक हिस्सा कैकेयी और
सुमित्रा – अपनी तीनों रानियों को
खिला दिया| तीनों रानियाँ गर्भवती हुईं और तब वह शुभ घड़ी आई जब प्रभु को
जन्म लेना था|
जोग लगन ग्रह बार तिथि, सकल भये अनुकूल|
चार अरु आचार हर्षजुत राम जनम सुख मूल | १९०|
चैत्र मास शुक्ल पक्ष
की नवमी तिथि को - ‘मध्य दिवस अति सीत न
घामा’
– जिसे अब रामनवमी कहते हैं – श्रीहरि विष्णु ने
दशरथ-पुत्र राम के रूप में जन्म लिया| यहाँ तुलसीदास हर्षित
होकर एक सुन्दर छंद में गाते हैं –
भए प्रगट कृपाला दीन दयाला कौसल्या हितकारी |
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी |१९१.१-|...
श्रीराम के अवतार का
अभिनन्दन करती हुई यह आठ छंदों की एक सुन्दर वंदना है| श्रीराम के जन्म के
बाद कैकेयी ने भरत को तथा सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न को जन्म दिया| सर्वत्र उल्लास छा गया. बधावे बजने लगे| तब शिव ने पार्वती को
एक गोपनीय बात बताई कि उस मंगलमय अवसर पर मनुष्य-रूप में वे स्वयं भी
काकभुशुण्डीजी के साथ वहां उपस्थित थे| इसके बाद तुलसीदासजी
का सुन्दर बाल-वर्णन आता है जिसमें एक सुन्दर प्रसंग है| एक दिन माता कौसल्या
बालक श्रीराम को सजा-सवांर कर पालने में सुला कर पूजा
करने गयीं तो देखा बालक श्रीराम वहां स्वयं भोग लगा
रहे हैं| लौट कर देखा तो पालने में भी सोया पाया| फिर पूजा-घर में गयीं तो वहां
भी बालक को भोग लगते देखा| यह देख कर कौशल्या को चक्कर आ गया| तब प्रभु ने –
देखरावा मातहि निज अद्भुत रूप अखंड|
रोम-रोम प्रति लागे, कोटि-कोटि ब्रह्मंड|२०१|
प्रभु का यह अखंड रूप
देख कर – ‘तन पुलकित मुख बचन न
आवा, नयन मूँदि चरननि सिरु
नावा’- कौशल्या अभिभूत हो
गयीं| तब प्रभु ने कौशल्या से कहा – ‘यह जनि कतहूँ कहसि
सुनु माई’| तुलसीदास का यह बाल-वर्णन अपूर्व आनंददायी
है|
बाल काण्ड : कथा-सूत्र १०
कुछ दिन बाद गुरु
वशिष्ठ ने चारों भाइयों का नामकरण-संस्कार संपन्न किया| बचपन से ही राम
लक्ष्मण के साथ और भरत शत्रुघ्न के साथ प्रीति करने लगे थे| समयानुसार चारों
भाइयों का मुंडन एवं जनेऊ संस्कार भी संपन्न हुआ| धीरे-धीरे चारों भाई सभी
विद्याओं, वेद-पुराण, तीर-धनुष – सब में निपुण हो गए| उन्हीं दिनों महामुनि
विश्वामित्रजी वन में अपने आश्रम में रहकर जप-तप करते थे जिसमे
मारीच और सुबाहु आदि राक्षस अनेक प्रकार से विघ्न डालते थे| श्रीराम के अवतार की
बात जान कर विश्वामित्रजी राजा दशरथ के दरबार में गए और राजा से अनुरोध किया कि
राक्षसों से यज्ञ की रक्षा के लिए वे कृपापूर्वक चारों भाइयों को उनके साथ जाने
दें| मुनिवर ने जब राजा को बहुत तरह से समझाया तब दशरथजी ने श्रीराम और लक्ष्मण को
मुनिवर के साथ सहर्ष विदा किया|
मार्ग में जाते हुए ही
श्रीराम ने तड़का नामक राक्षसी को एक ही वाण में मार गिराया| आश्रम में रहते हुए
मुनिवर ने दोनों भाइयों को अनेक प्रकार का विद्यादान दिया| अब मुनिवर
विश्वामित्रजी निश्चिन्त होकर यज्ञ करने लगे और जब मारीच और सुबाहु आदि राक्षस यज्ञ में बाधा
पहुंचाने आये तो श्रीराम ने सबको मार गिराया| इसी प्रकार मुनिवर के
आश्रम में कुछ दिन विद्याध्ययन करने के बाद दोनों भाई विश्वामित्रजी के
साथ जनकपुरी का धनुषयज्ञ देखने चले| रास्ते में एक सूना
आश्रम दिखाई दिया जिसमें पत्थर की एक शिला पड़ी थी| तब विश्वामित्रजी ने
कथा सुनाई कैसे इंद्र ने गौतम मुनि की पत्नी अहल्या का शील-भंग किया था और कैसे
पति के शाप से अहल्या पत्थर बन गयी थी| तब श्रीराम के चरणों
के स्पर्श से अहल्या पुनः जीवित हो गयी और श्रीराम के चरणों से लिपट गयी|
वहां से चलते-चलते दोनों भाइयों के
साथ विश्वामित्रजी जनकपुरी जा पहुंचे और वहीँ एक अमराई में ठहर गए| तभी राजा जनक को
मुनिवर के आगमन का संवाद मिला और वे मुनिवर का स्वागत करने के लिए उस आम्र-वाटिका में जा पहुंचे| विश्वामित्रजी ने राजा
जनक को श्रीराम और लक्ष्मण के विषय में बताया कि वे राजा दशरथ के पुत्र हैं और राम
चारों पुत्रों में बड़े हैं| तब जनकजी उनलोगों को साथ लिवा ले गए और एक महल में उनको
ठहराया| श्रीराम और लक्ष्मण कुछ देर बाद गुरु की आज्ञा लेकर नगर-भ्रमण के लिए निकले| दोनों भाइयों की
सुन्दरता पर नगर के नर-नारी लट्टू हो रहे थे| सखियाँ आपस में कह रही
थीं –
देखि राम छबि कोऊ एक कहहीं, जोगु जानकिहि यह बरु
अहई |
जों सखी इन्ह्हीं देख नरनाहू, पन परिहरि हठी कराइ बिबाहू | २२१.१|
वास्तव में जनकजी ने
प्रण कर रखा था कि सीता के स्वयंवर में जो वीर-पुरुष शिवजी के धनुष
को उठा कर उसे भंग कर सकेगा उसी से सीता का विवाह होगा| इसी बीच दुसरे दिन
प्रातः घूमते-घूमते राम और लक्ष्मण जनक-वाटिका में गुरुवर की
पूजा के लिए फूल तोड़ने चले गए| लेकिन उसी समय सीता वहां वाटिका के मंदिर में गौरी-पूजन के लिए आ रही थीं| गौरी से सीता ने मन-ही-मन अपने लिए सुन्दर वर
की याचना करना चाहती थीं| तभी उनकी एक सखी ने दोनों राजकुमारों को देख लिया|उसने तुरत आकर सीता को
बताया –
देखन बागु कुंवर दुई आये, बय किसोर सब भाँति
सुहाए |
स्याम गौर किमि कहौं बखानी, गिरा अनयन नयन बिनु
बानी |२२८.१|
उत्सुक होकर सीता भी
सखियों के साथ दोनों राजकुमारों को देखने चलीं और राम की शोभा देखते ही अपना सुध-बुध खो बैठी और गौरी
के मंदिर में जा कर विनती करने लगीं –
जय जय गिरिबर राज किसोरी, जय महेस मुखचंद चकोरी |...
मोर मनोरथ जानहु नींके, बसहु सदा उरपुर सबही
के |
कीन्हेउ प्रगट न कारन तेही, अस कहि चरन गाहे
बैदेही |
बिनय प्रेम बस भई भवानी, खासी माल मूरति मुसुकानी |
सुन सिय सत्य असीस हमारी,पूजिहि मन कामना
तुम्हारी|२३४-३५|
मनोवांछित आशीष पाकर
सीता हर्षित होती हुई सखियों के साथ महल को लौट गयीं|
बाल काण्ड : कथा-सूत्र ११
जनक-वाटिका प्रसंग
रामचरितमानस का सबसे सुन्दर प्रसंग है| वहीं श्रीराम और सीता
ने पहली बार एक दूसरे को देखा. फूल लेकर जब राम और
लक्ष्मण लौटे तब पूजा के बाद गुरुवार ने आशीष देते हुए कहा – ‘सुफल मनोरथ होंहु
तुम्हारे’ | दूसरे दिन जनकजी ने
अपने कुल-पुरोहित शतानन्दजी को भेजकर विश्वामित्रजी को राजकुमारों के साथ स्वयंबर की
धनुष-यज्ञशाला में आमंत्रित किया| वहां दूर-दूर से आये अनेक
प्रदेशों के राजागण और शूर-वीर अपने- अपने आसनों पर
विराजमान थे| ठीक समय पर सीता भी स्वयंवर-स्थल में आयीं| फिर बंदी-जनों ने जोर-जोर से घोषणा करके
सबको राजा जनक के प्रण के विषय में बताया कि जो परमवीर शिवजी के धनुष की प्रत्यंचा
चढ़ाकर उसको तोड़ डालेगा सीता उसी का वरण करेंगी| तब एक-एक करके सभी राजा आ-आ कर धनुष को उठाने की
चेष्टा करते पर धनुष तो टस-से-मस भी नहीं होता| निराश होकर सभी
प्रतियोगी अपनी-अपनी जगह जाकर बैठ जाते| चिंतित होकर जनकजी बोले –
अब जनि कोउ माखै भटमानी, बीर बिहीन मही मैं
जानी |
तजहु आस निज निज गृह जाहू, लिखा न बिधि बैदेहि
बिबाहू |२५१.२|
यह सुनकर लक्ष्मण को
जोश आ गया| वे बोले ऐसी-ऐसी धनुही तो हमलोगों
ने बचपन में न जाने कितनी तोड़ी हैं| उनको रोकते हुए
विश्वामित्रजी ने श्रीराम से कहा – ‘ उठहु राम भंजहु भवचापा, मेटहु तात जनक परितापा’| तब श्रीराम गुरु का
चरण छूकर चले और पलक मारते धनुष को उठाकर उसकी प्रत्यंचा चढ़ाकर उसे तोड़ डाला| धनुष के टूटते ही सीता
ने श्रीराम के गले में वरमाला दाल दी| धनुष के टूटते ही वहां
परम-क्रोधी मुनि परशुरामजी आ पहुंचे| उपस्थित सभी राजाओं के
बीच खलबली मच गयी| सबलोग बहुत भयभीत हो गए कि अब क्या होगा| कड़ककर परशुरामजी ने
पूछा इस धनुष को किसने तोडा| डर के मारे कोई बोल नहीं रहा था| लेकिन ढीठ लक्ष्मण ने
आगे बढ़कर कहा – ‘बहु धनुहीं तोरीं
लरिकाईं, कबहूँ न अस रिस कीन्ह
गोसाईं’| इससे परशुरामजी और क्रुद्ध
हुए|
यह परशुराम-लक्ष्मण संवाद भी
रामायण का एक अत्यंत रोचक प्रसंग है| तब श्रीराम ने अपनी
शीतल वाणी से परशुरामजी का क्रोध शांत किया| इसके बाद श्रीराम की
परीक्षा लेने के लिए परशुरामजी ने उनको अपना धनुष प्रत्यंचा चढाने के लिए देना
चाहा तो धनुष अपने-आप श्रीराम के हाथों
में चला गया| तब तो परशुरामजी जान गए की
श्रीराम विष्णु के अवतार हैं और उनकी वंदना करने लगे| फिर विश्वामित्रजी
ने जनकजी से कहा – ‘दूत अवधपुर पठवहु जाई, आनहि नृप दसरथहि बोलाई’| उधर बरात के लिए दशरथजी को अयोध्या निमंत्रण भेजने की
व्यवस्था होने लगी और
इधर जनकपुरी में सीता के विवाह की सारी तैयारियां शुरू ही गयीं|
बाल काण्ड : कथा-सूत्र १२
श्रीराम के धनुष-भंग करने और स्वयंबर
में सीता के श्रीराम को वरमाल पहनाने का समाचार सुन कर अयोध्या में सर्वत्र
हर्षोल्लास छा गया और राजा दशरथ बरात की तैयारियां करने लगे | फिर भरत, शत्रुघ्न और गुरुवार
वशिष्ठजी के साथ दशरथजी बरात सजा कर जनकपुरी की और चल पड़े| वहां पहुँचते ही
जनकजी ने बरात का विधिपूर्वक स्वागत किया| सबको सुन्दर
जनवासे में ठहराया गया | फिर गुरुवर
विश्वामित्रजी के साथ श्रीराम और लक्ष्मण पिता राजा दशरथ और भरत, शत्रुघ्न तथा गुरुवर वशिष्ठजी से
मिले| बरात लग्न से पहले ही
पहुँच गयी थी| नगर की नारियां चारों
भाइयों के एक-जैसे स्वरूप की बड़ाई करते नहीं अघाती थीं|
सखि जस राम लखन कर जोटा, तैसेइ भूप संग दुई
ढोटा|
भरत राम ही की अनुहारी,सहसा लखि न सकहिं नर
नारी|
लखनु सत्रुसूदन एक रूपा, नख सिख ते सब अंग
अनूपा |३१०.२-३|
विवाह-मंडप की शोभा का
अपूर्व वर्णन तुलसीदास ने किया है| लग्न-समय देख कर सीता को
श्रीराम के साथ आसन पर बैठाया गया और जनकजी ने सुखपूर्वक सीता का कन्यादान दिया| जब भांवरे पड़ने लगे – तुलसी दासजी कहते हैं –
जाई न बरनी मनोहर जोरी, जो उपमा कछु कहों सो
थोरी|
राम सीय सुन्दर प्रतिछाहीं, जगमगात मनि खंभन माहीं |...
राम सीय सिर सेंदुर देहीं, सोभा कहि न जात बिधि
केहीं|३२४.१-४|
इसी शुभ लग्न में
जनकजी ने वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न
का विवाह भी क्रमशः मांडवी, उर्मिला और
श्रुतकीर्ति से कर दिया| मांडवी जनकजी के भाई
कुशध्वज की बड़ी बेटी थी, और उर्मिला और
श्रुतकीर्ति जानकीजी की छोटी बहनें थीं| फिर चारों दुल्हिनों
को सखियाँ कोहबर में ले गयीं, और तब विदा होकर वे
चारों जोड़े जनवासे गए| जनकजी ने बरात को कई
दिन जनकपुरी में ही रोक रखा| और अंततः बहुत सारे
दान-दहेज़ के साथ बरात को सहर्ष अयोध्या के लिए विदा किया| इस प्रकार तुलसीदास इस
पवित्र बालकाण्ड की कथा को समाप्त करते हुए कहते हैं –
सिय रघुबीर बिबाहु, जे सप्रेम गावहिं
सुनहिं|
तिन्ह कहुं सदा उछाहु, मंगलायतन राम जसु|३६१|
| बालकाण्ड समाप्त|
[इसके पूर्व के अंश के लिए नीचे देखें : बालकाण्ड : कथा-सूत्र १-५]
[इसके पूर्व के अंश के लिए नीचे देखें : बालकाण्ड : कथा-सूत्र १-५]
रामचरितमानस
सरल भाषांतर एवं कथा-सूत्र
लेखक : डा. मंगलमूर्ति
परिचय-प्रसंग
हिन्दू समाज की धर्म-परम्परा में तीन धर्म-ग्रंथों का विशेष
महत्व मानते हैं – दुर्गासप्तशती, श्रीमद्भागवद्गीता और
रामचरितमानस. इनमें रामचरितमानस को बहुधा ‘रामायण’ के नाम से ही लोग
जानते हैं जिसकी रचना लगभग ४०० साल पहले तुलसीदास ने अयोध्या में रह कर की थी| दुर्गासप्तशती और
श्रीमद्भागवद्गीता की रचना तो २५०० वर्ष से भी पहले हुई थी| दुर्गासप्तशती
मार्कंडेय पुराण का अंश है और श्रीमद्भागवद्गीता
महाभारत का अंश है| ये दोनों संस्कृत में हैं और रामचरितमानस पुरानी हिंदी (ब्रजभाषा-अवधी) में|[ यहाँ हम संस्कृत के इन दो धर्म-ग्रंथों दुर्गासप्तशती और
श्रीमद्भागवद्गीता का सरल हिंदी में अनुवाद बाद में प्रस्तुत करेंगे|] इसका मूल उद्देश्य
सामान्य जन को आसानी से इन महत्वपूर्ण धर्म-ग्रंथों से परिचित
कराना है| इनसे परिचित हो जाने पर संभावना है इनको विस्तार से पढने-समझने की अभिरुचि जाग
जाये| लेकिन विस्तार से पढने में अभिरुचि न भी जगे तब भी इनके
विषय में थोडा ज्ञान भी बहुत लाभकारी होगा ऐसा मान कर हम इन्हें इस सरल रूप में
प्रस्तुत कर रहे हैं|
रामायण की कथा हजारों
साल पुरानी है| वाल्मीकि ने भी लगभग २५०० साल पहले ‘रामायण’ संस्कृत में लिखी| भारतवर्ष में और
अन्यत्र भी राम की यह कथा अनेक भाषाओं और रूपों में कई और रामायणों में अलग-अलग समयों में लिखी
गयी| तमिल की ‘कम्ब रामायण’ और बंगला की ‘कृत्तिवास रामायण’ बहुत प्रसिद्द हैं| ‘रामायण’ को तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ नाम दिया और उसे १६
वीं शताब्दी में उस समय की प्रचलित काव्य-भाषा में लिखा जिससे
वह सब लोगों के लिए सुलभ हो, सब उसे पढ़ और समझ सकें| ऐसी पद्य-भाषा में लिखा जो गाई
जा सके और इस तरह आसानी से सबको याद हो जाये| उसकी भाषा में संस्कृत
और हिंदी के शब्द ज्यादा हैं लेकिन उस ज़माने में उत्तर भारत के अवध, ब्रज-भाषा क्षेत्र में
लोगों की जो आम बोलचाल की भाषा थी जिसे लोग आसानी से समझते थे उसी के एक
काव्यात्मक रूप में इसकी रचना की जो छंद और लय में बंधी होने के कारण गाई जा सकती थी और आसानी से याद होने
लायक थी| यही कारण है की तुलसी की यह रामायण आज भी सब जगह पढ़ी और गाई
जाती है – शहरों से ज्यादा गावों
में| बहुत से लोगों को उसके दोहे-चौपाई कंठस्त हैं| अक्सर चैत्र-मास के नवरात्र में
मानस के अखंड पाठ जगह-जगह होते हैं|
हम यहाँ उसी तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ से आपका परिचय कराना
चाहते हैं ताकि आप यह जान सकें कि इस काव्य-ग्रन्थ में तुलसी ने
राम की कथा कैसे कही है, और इस कथा में कैसे-कैसे सदुपदेश भरे हैं
जो हमारे हिन्दू धर्म के मूल रूप से हमें परिचित कराते हैं| कैसे यह ग्रन्थ हमारे आज के जीवन में भी उतना ही प्रासंगिक
है, कैसे इसे पढ़ कर हम आज
के अपने जीवन में दुश्चिंताओं से छुटकारा पा सकते हैं और एक सुख-संतोष से भरा जीवन
बिता सकते हैं| वेद-उपनिषद् और गीता में
जो ज्ञान भरा है वह सब लोकभाषा में ‘मानस’ में लोगों के लिए सुलभ
है| सोचिये, तुलसीदास इस ग्रन्थ की
रचना करके अमर हो गए और उनका यह ग्रन्थ आज देश और विदेश में लोगों की जुबान पर
कायम है| फिर तो इसके बारे में जानकर और इसको पढ़कर हम भी अपने जीवन
को सफल और सार्थक बना सकते हैं| हमें अपनी धर्म-संस्कृति को जानना-समझना चाहिए और उसमे
गौरव का अनुभव करना चाहिए| अपने धर्म को जानना और उसका अनुसरण करना ही जीवन को सफल
करना है|
तुलसीदास के जीवन के
बारे में बहुत कुछ नहीं मालूम लेकिन मानते हैं कि उनका जन्म प्रयाग के पास राजापुर
गाँव में एक ब्राह्मण-परिवार में १४९७ ई. में हुआ था| प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा के बाद वे काशी
आये और वहां रहकर वेद-पुराण आदि का पंद्रह वर्षों तक
अध्ययन किया| बाद में गृहस्थ-जीवन से संन्यास लेकर
वे काशी में ही रहने लगे| कहते हैं अपनी साधना में उनको शिव, हनुमान और राम तीनों
के दर्शन हुए थे| शिवजी ने ही उन्हें अयोध्या जा कर ‘रामचरितमानस’ लिखने की मानसिक
प्रेरणा दी| ‘मानस’ की रचना तुलसीदास ने
७७ वर्ष की अवस्था में १५७४ ई. में अयोध्या में रह कर
प्रारम्भ की और लगभग ढाई साल में उसे पूरा किया| बाद में वे पुनः काशी
चले आये और वहां गंगा किनारे असी घाट पर रहने लगे जहाँ अभी भी उनका मंदिर है| कहते हैं वहां निकट ही ‘संकट मोचन’ में हनुमान-मंदिर की स्थापना भी
तुलसीदासजी ने ही की थी| काशी में रहते हुए १२६ वर्ष की आयु में उनका निधन १६२३ ई. में हुआ|
आपको जान कर सुखद आश्चर्य होगा की ‘रामचरितमानस’ और तुलसीदास पर सबसे
सुन्दर और प्रामाणिक ग्रन्थ एक बेल्जियन पादरी और संत कामिल बुल्के ने लिखा है| फादर बुल्के २६ साल की
उम्र में १९३५ ई. में भारत आये और
मृत्यु-पर्यंत यही, रांची में रह गए| हिंदी को उन्होंने
अपनी मातृभाषा और तुलसीदास के अध्ययन को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया| ‘मानस’ के विषय में वे कहते
हैं:
तुलसी की दृढ धारण यह
थी कि भगवान के पास पहुँचने के लिए न तो संन्यास, न जटिल कर्मकांड, न घोर तपस्या, न रहस्यमय साधना और न
दर्शन का प्रकांड ज्ञान आवश्यक है| भक्तिमार्ग पर चलने के
लिए संन्यास लेने की आवश्यकता नहीं है; गृहस्थाश्रम में रहते
हुए भी मनुष्य अपना परलोक
सुधार सकता है| इस संसार में हमारा सबसे आवश्यक कर्त्तव्य है, अपना परलोक सुधारना| जो तुलसी के
भक्तिमार्ग पर चलते हैं, वे इहलोक में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि पर विजय पाने
का प्रयत्न करते रहते हैं, और अपना कर्त्तव्य
करते हुए तथा दूसरों की सेवा
करते हुए अपना परलोक सुधारते
हैं|
‘रामचरितमानस’ में तुलसीदास का यही
मूल सन्देश है| अपनी रामायण की रामकथा
में उन्होंने सामान्य जनता के सुख-दुःख की ही गाथा जनता
की सरल, स्वाभाविक भाषा में
लिख कर बताया है कि राम का चरित्र एक आदर्श चरित्र है| राम स्वयं शिव के
अनन्य भक्त हैं. जैसे शिव उनके भक्त
हैं| राम और शिव में आत्मा-परमात्मा का सम्बन्ध
है|
भक्ति के कई रूप
रामायण में मिलते हैं – हनुमान की भक्ति, भरत की भक्ति, विभीषण की भक्ति, निषाद की भक्ति, आदि कई रूपों में
आदर्श भक्ति के दर्शन होते हैं| फादर बुल्के ने राम के आदर्श चरित्र के विषय में एक जगह एक
कथा लिखी है| रावण अपने भाई
कुम्भकर्ण से कह रहा है कि उसने सीता का अपहरण कर लिया है, लेकिन वह राम को छोड़
कर किसी और को नहीं चाहती| जब कुम्भकर्ण कहता है – तुम तो मायावी हो, राम का रूप ही धारण कर
लो| तब रावण कहता है कि
मैं वह भी कर चुका हूँ, लेकिन राम का रूप धारण करते ही मेरी पाप-बुद्धि नष्ट हो जाती
है|
राम का चरित्र एक
आदर्श मानव का चरित्र है जो हिन्दू धर्म ही नहीं सभी धर्मों के लिए एक आदर्श
चरित्र है| वास्तव में हिन्दू धर्म स्वयं में ही एक आदर्श मानव धर्म है| उसका सन्देश किसी एक
समाज-विशेष के लिए ही नहीं है, अपने सच्चे स्वरुप में
वह एक आदर्श विश्व-मानव धर्म है| और तुलसी के ‘मानस’ में इसी आदर्श विश्व-मानव धर्म का सन्देश
प्रतिपादित हुआ है|
बाल काण्ड : कथा-सूत्र १
‘रामचरितमानस’ का प्रारंभ बालकाण्ड से होता है| उसके बाद अयोध्या
काण्ड, अरण्य काण्ड, किष्किन्धा काण्ड, सुन्दर काण्ड, लंका काण्ड और उत्तर
काण्ड – कुल सात कांडों में
तुलसीदास ने रामकथा को विभाजित किया है| बालकाण्ड में पहले
रामकथा की पूरी पृष्ठभूमि है और फिर राम के बचपन से लेकर उनके विवाह तक की कथा है| अयोध्या काण्ड में
उनके राज्याभिषेक की तैय्यारी और सौतेली माता कैकेयी के कुचक्र से उनके बनवास-गमन की कथा है| अरण्य काण्ड में उनके
वन-भ्रमण और रावण द्वारा सीता के हरण की कथा है| किष्किन्धा काण्ड में
हनुमान और वानर-राज सुग्रीव से उनकी भेंट की कथा है| सुन्दर काण्ड में
हनुमान द्वारा लंका जाकर सीता का पता लगाने की कथा है| तब लंका काण्ड में राम-रावण युद्ध और रावण के अंत की कथा
है| अंतिम उत्तर काण्ड में सीता के साथ राम के अयोध्या वापसी की
कथा और आदर्श एवं सदाचारपूर्ण जीवन के लिए सुन्दर उपदेश हैं|
सभी धर्म-ग्रंथों की तरह ‘रामचरितमानस’ का प्रारंभ भी देव-स्तुतियों से होता है| पहले संस्कृत के कुछ
श्लोकों में सरस्वती, गणेश, पार्वती, शंकर, वाल्मीकि, हनुमान, सीता एवं राम की वंदना
है| फिर ‘ बंदऊँ गुरुपद पदुम
परागा’ – गुरु के चरण-कमलों की वंदना करते
हैं| इसी प्रकार शुरू की चौपाइयों में ज्ञानी ब्राह्मणों और
संतों की वंदना है और सत्संग का महत्व बताया गया है|
बिनु सत्संग बिबेक न होई, रामकृपा बिनु सुलभ न
सोई |२.४|
लेकिन फिर यहीँ
तुलसीदास दुष्टों की खल-वंदना भी करते हैं. दुष्ट-जन ऐसे होते हैं-
बचन बज्र जेहिं सदा पिआरा’ सहस नयन पर दोष निहारा |३.५|
फिर कहते हैं कि इस
संसार में गुण और दोष एक में सने हुए हैं, लेकिन जैसे हंस मोती
चुन लेते हैं, उसी प्रकार संत केवल
गुणों को अपना लेते हैं| इस प्रकार संत और असंत के गुण-दोषों को दर्शाते हुए
तुलसीदास रामकथा का विशेष महत्व बताते हैं|’राम-नाम’ एक महामंत्र है जो
निर्गुण और सगुन – परमेश्वर के दोनों
रूपों से महान है| ‘राम-नाम’ को तुलसी राम के सगुन
रूप से भी बड़ा बताते हैं| वे यहाँ तक कहते हैं कि –
कहों कहाँ तक नाम बड़ाई, राम न सकहिं नाम गुण
गाई|२५.४|
‘राम-नाम’ का महत्त्व इतना बड़ा
है कि स्वयं राम भी उसका गुणगान नहीं कर सकते, अर्थात राम का नाम राम
से भी बड़ा है| इस प्रकार ईश-वंदना और राम-नाम का महत्त्व बताने
के बाद तुलसी कहते हैं –
एही बिधि निज गुण दोष कहि, सबहि बहुरि सिरु नाइ.
बरनऊँ रघुबर बिसद जसु, सुनी कलि कलुष नसाई |२९|
तुलसी इसी प्रकार राम
की कथा शुरू करते हैं जिसको पढ़ कर या सुन कर इस कलियुग के सभी पाप नष्ट हो जायेंगे|
बाल काण्ड : कथा-सूत्र २
‘रामचरितमानस’ के बालकाण्ड में
प्रारंभ में वंदना और स्तुतियों का यह प्रसंग बहुत विस्तृत है| एक-एक कर के सभी देवी-देवताओं के बाद वे
रामकथा के सभी पात्रों - राम और सीता से लेकर हनुमान आदि, सबकी वंदना करते हैं| रामकथा की रचना में
अपनी कवित्व-शक्ति के विषय में भी तुलसीदास बहुत विनम्रता से कहते हैं –
कबित बिबेक एक नहीं मोरें, सत्य कहऊँ लिखी कागद
कोरे...|८.५|
कबि न होऊं नहीं चतुर कहावऊँ, मति अनुरूप राम गुन
गावऊँ|११.५|
फिर वे बताते हैं इस
रामकथा का मूल-स्रोत क्या है| इस कथा को सर्वप्रथम शिवजी ने बहुत दिनों
तक अपने मानस में रखा - जिसके कारण ही
तुलसीदास ने इसे ‘रामचरितमानस’ नाम दिया – और पहले अपनी प्रिया
पार्वतीजी को सुनाया|
रचि महेस निज मानस राखा, पाई सुसमउ सिवा सन भाखा |३४.६|
फिर शिवजी ने इसे
रामभक्त काकभुशुंडीजी को भी सुनाया जो एक ऋषि के शाप से कौवा हो गए थे| बाद में काकभुशुंडीजी
ने इसे याज्ञवल्क्य मुनि को सुनाया और फिर याज्ञवल्क्य मुनि ने
इसे भरद्वाज मुनि को सुनाया| स्वयं तुलसीदास ने यह कथा अपने गुरु नरहरी स्वामी से सुनी
थी| फिर तुलसी यह बत्ताते
हैं कि इस रामकथा की रचना उन्होंने कैसे की –
संवत सोरह सै एकतीसा, करऊँ कथा हरिपद धरि
सीसा...
नौमी भौमवार मधुमासा, अवधपुरी यह चरित
प्रकासा |३३.२|
अर्थात, सं. १६३१ या ई. १५७४ के चैत्र मास (लगभग अप्रैल) की नवमी तिथि, मंगलवार, को तुलसीदास ने इस ‘रामचरितमानस’ की रचना प्रारंभ की थी|
इसके बाद तुलसी एक
सुन्दर उपमा-श्रंखला से राम-कथा के माहात्म्य का वर्णन करते
हैं| वे रामकथा की तुलना एक सुन्दर सरोवर से करते हैं और बताते
हैं रामकथा में चार संवाद हैं - १.शिव-पार्वती २.काकभुशुंडी-गरुड़ ३.याज्ञवल्क्य- भरद्वाज और ४.तुलसी- संत श्रोता, जो इसके चार सुन्दर
घाट हैं| इसके सातों काण्ड इसकी सात सीढियां हैं| इसकी दोहे-चौपाइयां आदि इस सरोवर
में कमल के फूल-पत्तों जैसी हैं| दुष्ट और विषयी-जन कौवों-बगुलों की तरह इस
पवित्र सरोवर के निकट जाते ही नहीं|
फिर तुलसी कहते हैं कि
प्रति वर्ष माघ मास में जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश कर जाते हैं तब त्रिवेणी-स्नान के लिए तीर्थराज
प्रयाग में देवताओं-मुनियों-मनुष्यों की जुटान
होती है|
एक बार भरि मकर नहाए, सब मुनीस आश्रमन्ह
सिधाए
जागबलिक मुनि परम
बिबेकी, भारद्वाज राखे पद टेकी |४४.२|
एक बार भरद्वाज मुनि
ने आग्रहपूर्वक याज्ञवल्क्यजी को वहाँ रोक लिया और उनसे रामकथा के विषय में अपनी
शंका का समाधान करने की प्रार्थना की|
बाल काण्ड : कथा-सूत्र ३
प्रयाग में त्रिवेणी-संगम पर भरद्वाज मुनि
ने भक्तिपूर्वक याज्ञवल्क्यजी से राम के चरित्र के गूढ़ रहस्य के विषय में पूछा| कहा, हे मुनिवर! –
एक राम अवधेस कुमार, तिन्ह कर चरित बिदित
संसारा
नारी बिरहँ दुखु लहेऊ अपारा , भयऊ रोष रन रावनु मारा
प्रभु सोई राम कि अपर कोऊ जाहि जपत त्रिपुरारी
सत्यधाम सर्वज्ञ तुम्ह कहहु बिबेक बिचारि |४५-४६|
भरद्वाज मुनि का
प्रश्न अत्यंत गूढ़ है| एक तो दशरथ-पुत्र राम हुए
जिन्होंने १४ वर्ष वनवास में बिताया और रावण को युद्ध में मारा, और एक राम वह हैं
जिन्हें शिवजी भी निरंतर मन में जपते रहते हैं| क्या दोनों एक ही हैं
या भिन्न-भिन्न? तब याज्ञवल्क्य मुनि
उनको पूरी कथा सुनाने लगे| कहा –
एक बार त्रेता युग में
शिवजी अपनी पत्नी दक्ष-पुत्री सती के साथ
अगस्त्य ऋषि के पास गए और वहां कुछ दिन रह कर उनसे विस्तार से रामकथा सुनी| फिर सती को लेकर कैलाश पर्वत की ओर
लौटने लगे| उसी समय पृथ्वी का पाप-भार उतारने के लिए राम
ने दशरथ-पुत्र के रूप में अवतार लिया था और पिता की आज्ञा का पालन करने दंडक वन में
निवास कर रहे थे| इस बीच रावण ने मारीच
को स्वर्ण-मृग बनाकर सीता का हरण कर लिया था और तब राम-लक्ष्मण कुटिया में
सीता को न पाकर व्याकुल हो वन में भटक रहे थे| शिव को तो राम के
अवतार की बात ज्ञात थी किन्तु सती यह नहीं जानती थीं| राम-लक्ष्मण को वन में इस तरह भटकते देख कर
शिव सोच में पड गए| पुलकित होकर शिव ने चुपचाप भक्तिपूर्वक राम को प्रणाम किया| यह देख कर सती को
संदेह हुआ कि शिवजी, जिनको सभी सिर नवाते
हैं, एक मानव-राजकुमार को कैसे
प्रणाम कर रहे हैं| तब शिवजी को बताना पड़ा कि मानव-रूप में ये मेरे
इष्टदेव राम ही हैं| फिर भी सती का संदेह दूर नहीं हुआ| उन्होंने स्वयं जाकर
परीक्षा लेना चाहा| शिवजी भावी अनिष्ट समझ कर चुप हो गए| सती इस बीच सीता का
रूप बनाकर राम के निकट चली गयीं| शिव-पत्नी सती को इस
बनावटी रूप में देख कर लक्ष्मण भी भ्रम में पड़ गए, लेकिन राम सारी बात समझ गए, और तब –
जोरी पानि प्रभु किंह प्रनामू, पिता समेत लीन्ह निज
नामू
कहेउ बहोरी कहाँ ब्रिषकेतु, बिपिन अकेलि फिरहु
केहि हेतू |५२.४|
राम ने सती को प्रणाम
करके पूछा कि वे वन में शिवजी के बिना अकेली कहाँ घूम रही हैं| सती का भ्रम तब और
गहरा हो गया जब अपनी माया से राम ने हर जगह सती के चारों ओर राम-सीता और लक्ष्मण को
उनके साथ-साथ चलते हुए दिखाया| वहीँ सभी ओर सती ने यह भी देखा कि सभी जगह सकल देवता-गण राम की वंदना कर
रहे हैं| भयभीत होकर सती आँखें बंद कर वहीँ बैठ गयीं और जब आँख खुली
तो कहीं कुछ नहीं था| सती बिलकुल घबरा कर जल्दी-जल्दी शिव के पास लौट
आयीं| लेकिन शिव ने अंतर्दृष्टि से देख लिया कि सती ने कपट-पूर्वक सीता का रूप
बनाया था, तो अब वे उनको अपनी
पत्नी के रूप में फिर कैसे ग्रहण कर सकते थे| अतः, शिव ने मन में यह
संकल्प किया कि अब इस शरीर में वे सती को पुनः अंगीकार नहीं कर सकते| शिवजी को चिंतामग्न
देख सती भी जान गयीं की शिव को उनकी कपट-लीला का पता चल गया है| यह सोच कर ग्लानि से वे भी संतप्त हो गयीं| लेकिन शिव सती का मन
बहलाते हुए उनके साथ कैलाश लौट गए| इस प्रसंग को ‘रामचरितमानस’ में ‘सती-मोह’-प्रसंग के नाम से
जानते हैं|
बाल काण्ड : कथा-सूत्र ४
बालकाण्ड के प्रारम्भ
में ‘सती-मोह’ का प्रसंग विशेष
महत्वपूर्ण है| इसमें ‘मानस’ के केन्द्रीय विषय
आत्मा-परमात्मा के एकत्व की झलक मिल जाती है: राम का चरित्र वास्तव में
मनुष्य का चरित्र है अथवा ईश्वर का| संकेत यही है कि यह
विषय इतना गूढ़ है जिसने शिव-पत्नी सती को भी भ्रम
में डाल दिया| सती एक साथ मानव-रूप में राम को देख
रहीं थीं और तभी राम ने उनको सभी ओर अपना देव-रूप भी दिखा कर उनको
उसी तरह भ्रम में डाल दिया जैसे सभी साधारण जन भ्रमित हो जाते हैं| ईश्वर को हम मानव रूप
में देख कर ही उनसे एकाकार हो सकते हैं| राम ईश्वर के ही आदर्श
मानव-रूप हैं, और राम हर मानव में है, यही भाव है, और इसी भाव की पूरे ‘मानस’ में व्याख्या हुई है|
कैलाश पर लौट कर शिव
सती से उदासीन होकर तप में लीन हो गए और सती संतप्त रहने लगीं| अपने कपट-कृत्य पर पछताते हुए
सती ने राम से प्रार्थना की कि अब वे उनका यह दूषित शरीर परिवर्तित कर दें| सत्तासी हज़ार साल बाद
शिव की समाधि टूटी| इसी समय ब्रह्मा ने
दक्ष को प्रजापतियों का नायक दक्ष प्रजापति नियुक्त किया| दक्ष ने अपने अहंकार
में एक महायज्ञ आयोजित
किया जिसमें अपने दामाद शिव और पुत्री सती को रोष में निमंत्रित नहीं किया| शिव ने सती से कहा कि
एक बार ब्रह्मा की सभा में मुझसे रुष्ट होने के कारण ही उन्होंने आज ऐसा किया है कि
तुमको भी नहीं बुलाया| लेकिन मायका-मोह में सती नहीं
मानीं और मायके चली गयीं| वहां सब ने उनकी उपेक्षा की| सती को यज्ञ में कहीं
शंकर का भाग भी नहीं दिखाई पड़ा| क्रोध में सती ने हवन-कुंड में कूद कर अपना
शरीर भस्म कर डाला| यह देखकर शिव के गणों
ने शिव के पुत्र वीरभद्र के साथ जाकर यज्ञ को ही विध्वंस कर डाला| सती के मन में जन्म-जन्मान्तर में शिव की
ही पत्नी बनने का दृढ संकल्प था इसीलिए उनका पुनर्जन्म शैलराज हिमालय की पुत्री
पार्वती के रूप में हुआ| उधर जब से सती से शिव का वियोग हुआ था शिव वैरागी बन कर
जहाँ-तहां विचरते रहते थे|
शैल-सुता पार्वती जब युवा
हुईं, शैलराज को उनके विवाह
की चिंता हुई| उसी समय नारद मुनि आये और शैलराज की पत्नी मैना से बताया कि पार्वती का विवाह
तो एक अमंगलकारी वेश वाले योगी पुरुष से ही होगा, लेकिन यदि पार्वती तप
करे तो यह अभिशाप वरदान में बदल सकता है और स्वयं शिव से इसका विवाह हो सकता है| यह सुन कर पार्वती वन
में जाकर तप करने लगीं| हज़ार वर्ष तक कंद-मूल, फिर सौ वर्षों तक शाक
और तीन हज़ार वर्षों तक केवल पत्ते खाकर – जिससे ‘अपर्णा’ नाम पडा – पार्वती ने घोर तपस्या
की| तब प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने वरदान दिया कि – पार्वती, तुम्हारी मंशा पूरी
होगी और शिव ही तुम्हारे वर होंगे| इधर राम भी शिव की
वैरागी दशा से दुखी थे और उन्होंने शिव से मिल कर उनसे पार्वती के विषय में बताया
और अनुरोध किया कि वे पार्वती से विवाह रचाने की कृपा करें| तब शिव ने सप्तर्षि
मुनियों से जाकर पार्वती के प्रेम-भावना की परीक्षा लेने
का अनुरोध किया| सप्तर्षियों ने पहले तो पार्वती को कहा कि तुम नारद के
बहकावे में बेकार उस अड्भंगी शिव से विवाह करना चाहती हो, लेकिन पार्वती तो अपनी
आन पर अड़ी थीं – “जन्म कोटि लगी रगर
हमारी, बरऊँ संभु न त रहऊँ
कुंवारी”| जब शिव ने पार्वती की प्रतिज्ञा सुनी तो अत्यंत आनंदमग्न हो
गए|
उसी समय तारक राक्षस
के उपद्रव से पीड़ित होकर सभी देवताओं ने ब्रह्मा से त्राण की प्रार्थना की| ब्रह्मा बोले की केवल
शिव के वीर्य से उत्पन्न पुत्र द्वारा ही इस असुर का विनाश होगा| सत्ती के वियोग में
शंकर ने तभी से समाधि लगा ली है| उनमें विवाह और संतानोत्पत्ति की काम-भावना उत्पन्न करने के
लिए आपलोग कामदेव को राजी करें, तभी आपका मनोरथ सिद्ध
होगा| कामदेव शंकर के क्रोध से डरते हुए भी देवताओं के कल्याण के
लिए शंकर का तप-भंग करने को तैयार हो गए| पहले तो उन्होंने सम्पूर्ण जगत में अपना प्रभाव फैलाया|
जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम
ते निज निज मरजाद तजि
भये सकल बस काम |८४|
क्षण-भर के लिए समस्त
प्राणी-जगत काम-भावना में लिप्त हो गया| लेकिन जैसे ही शिव दीखे, कामदेव ठिठक गए| तब फिर उन्होंने अपना
प्रभाव फैलाया और शिव के ह्रदय को ताक कर पांच काम-वाण छोड़े जिससे शिव की
समाधि टूट गयी और क्रोधपूर्ण अपने तीसरे नेत्र से शिव ने आम के पत्तों में छिपे
कामदेव को देखा - “तब सिवँ तीसर नयन
उघारा, चितवतु काम भयऊ जरि
छारा”| फिर तो सम्पूर्ण जगत में हाहाकार मच गया| सर्वत्र काम-भावना का पूरी तरह लोप
हो गया| कामदेव की पत्नी रति रोटी-बिलखती शिव के पास
पहुंची तो शिव ने ढाढस बंधाते हुए कहा
कि तुम्हारे पति कामदेव तो रहेंगे लेकिन अब से वे अदृश्य होंगे और उनका नाम अनंग
होगा और जब श्रीकृष्ण का अवतार होगा तो वे उनके पुत्र प्रद्युम्न के रूप में पुनः
जन्म लेंगे| इसके बाद देवताओं की प्रार्थना पर शिव ने पार्वती से विवाह
करना स्वीकार कर लिया| जब शिव की अड्भंगी
बरात हिमालय की और चली तो उसमे देवताओं के साथ तरह-तरह के भूत-प्रेत भी थे| पहले तो ऐसी बेढंगी
बरात और दूल्हा देखकर सब डरे किन्तु फिर सारी बात जानने के बाद विधिवत विवाह
संपन्न हुआ और पार्वती को लेकर शिव सहर्ष अपने कैलाश पर्वत पर चले गए. और वहां –
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा, गनन्ह समेत बसहिं
कैलासा|
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ, एही बिधि बिपुल काल
चलि गयऊ|१०२.३|
इस प्रकार ‘रामचरितमानस’ का यह शिव-विवाह प्रसंग समाप्त
होता है| ऐसा मानते हैं कि विवाह-योग्य कुमारियों को शिव-विवाह का यह प्रसंग (बाल. दोहा ६६ से १०३ तक) नियमित पाठ करना चाहिए
जिससे सुन्दर घर-वर की प्राप्ति होती है|
बाल काण्ड : कथा-सूत्र ५
‘शिव-विवाह’ का यह प्रसंग याज्ञवल्कजी से सुन कर भरद्वाज मुनि अत्यन्य
प्रसन्न हुए और तब याज्ञवल्कजी ने उन्हें रामकथा सुनाना प्रारम्भ किया| कहा – कैलाश पर्वत पर एक ऐसा
वटवृक्ष है - “नित नूतन सुन्दर सब
काला”. उसी के नीचे बाघम्बर
बिछा कर शिवजी बैठे थे| तभी पार्वती वहाँ आयीं और उनसे रामकथा सुनाने का अनुरोध
किया और पूछा - क्या अयोध्या के
राजकुमार राम सचमुच ब्रह्म-स्वरुप हैं? ये सभी गूढ़ रहस्यमय
विषय मुझको समझाकर कहिये| पार्वती के प्रश्न से राम का ध्यान होते ही शिव आनंदमग्न हो
गए और बोले –
सगुनहि अगुनहि नहि कछु भेदा, गावहीं मुनि पुरान बुध
वेदा
अगुन अरूप अलख अज जोई, भगत प्रेमबस सगुन सो
होई |११५.१|
तब पार्वती ने पूछा
सच्चिदानंद परमब्रह्म राम ने दशरथ-पुत्र राम के रूप में
किस कारण अवतार लिया| शिव ने कहा - मैं तुम्हें पूरी
रामकथा सुनाता हूँ जिसे काकभुशुंडीजी ने गरुडजी को सुनाया था| लेकिन पहले तुम्हें
राम के अवतार की कथा सुनाता हूँ| भगवान् विष्णु के दो द्वारपाल जय और विजय शाप के कारण असुर
हो गए थे – एक हुआ हिरणयकशिपु और
दूसरा हिरणयाक्ष्य जिनसे इंद्र भी डरने लगे| हिरणयाक्ष्य को श्रीहरि विष्णु ने
वाराह (सूअर) का रूप धारण करके मारा
और हिरणयकशिपु का वध नरसिंह-रूप में किया| कालान्तर में फिर यही
दोनों रावण और कुम्भकर्ण के रूप में जन्मे| शाप के अनुसार विष्णु
को इन दोनों असुरों का एक बार और वध करना था इसी लिए इनका दुबारा असुर-योनि में जन्म हुआ था
और इसी कारण विष्णु ने भी कश्यप और अदिति अथवा दशरथ और कौशल्या के पुत्र राम के
रूप में नया अवतार लिया| एक और कथा के अनुसार एक कल्प में सभी देवता जलंधर नामक
दैत्य से हार गए तब शंकरजी ने उसके साथ घोर युद्ध किया किन्तु जलंधर की पत्नी के परमसती होने के कारण वे उस
दैत्य को हरा नहीं सके| तब विष्णु ने छल से जलंधर की पत्नी का सतीत्व भंग कर दिया
जिससे उस पतिव्रता ने विष्णु को शाप दे दिया|
कालान्तर में जलंधर ही
फिर रावण हुआ और श्रीहरि ने राम का अवतार लेकर उसका वध किया| तब पार्वती ने इसी कथा
के क्रम में शिवजी से नारद-मोह-प्रसंग के विषय में
पूछा कि नारद जैसे परम ज्ञानी मुनि को मोह कैसे हुआ और उन्होंने श्रीहरि विष्णु को
क्रोधित होकर शाप क्यों दिया|
कारण कवन श्राप मुनि दीन्हाँ, का अपराध रमापति
किन्हां|
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी, मुनि मन मोह आचरज भारी|१२३.४|
अगले कथा-सूत्र में इसी नारद-मोह-प्रसंग की कथा विस्तार
से दी गयी है, जो इससे पहले ऊपर दी गयी है|
नमस्कार!
ReplyDeleteमैं आपका लिखा मनोयोगपूर्वक पढ़ रहा हूँ । यह बेहद उम्दा और विद्वतापूर्ण पोस्ट है। आपको मेरी ओर से ढेर सारी शुभकामनाएं !
- पंडित विनय कुमार
हिन्दी शिक्षक
पटना (बिहार)