जयंती: १२८
फिराक़ गोरखपुरी
आजकल ग़ज़लगोई का चलन काफी बढ़ रहा है | हिंदी में ही नहीं
क्षेत्रीय बोलियों में भी | लिखने वालों की तादाद भी बढ़ रही है, और फेसबुक पर
विडियो भी रोज़ कई-कई आते हैं | अब ये और बात है कि उनमें से ज्यादातर को पढ़कर ऐसा
लगता है जैसे ईंट पर ईंट रखकर कोई कच्ची दीवार बनाई गई हो जिसमें गारा-पलस्तर के
अभाव से दीवाल में कोई मजबूती नहीं है, कोई टिकाऊपन नहीं है |
उर्दू में गज़लगोई का एक संश्लिष्ट विधान है, हालांकि वह
फारसी गज़लगोई के मुकाबले ज्यादा आज़ाद और लचीला होता गया है, जो इधर जॉन एलिया और
राहत इन्दौरी की ग़ज़लों में बहुत साफ़ झलकता रहा है | इन दो शायरों का जाना इधर
बहुतों को मर्माहत कर गया | लेकिन ये दोनों नई चलन के शायर हैं, स्पोंसर्ड बड़े-बड़े
मुशायरों वाले |
“इसी खंडहर में कहीं कुछ दिये हैं टूटे हुए,
इन्हीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात |”
उनके इस ग़ज़ल के प्रसंग में आज के हिंदी ग़ज़ल के परिदृश्य को
याद किया जा सकता है | उनकी एक अच्छी किताब ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ उ.प्र. हिंदी
संस्थान, लखनऊ से प्रकाशित है | उसमें उन्होंने उर्दू काव्य-साहित्य की चर्चा के
साथ उसके विभिन्न काव्य-रूपों और पारिभाषिक शब्दावली को भी सरल भाषा में व्याख्यायित किया है | वहीँ
उन्होंने ग़ज़ल की संरचना को भी तफसील से समझाया है | बहुत पहले (१९९१ में) जब यह
किताब मुझको नहीं मिली थी, मैंने हिंदी के एक ग़ज़लगो विनोद कुमार शर्मा की किताब
‘हवाओं में ज़हर है’ की समीक्षा ‘नव भारत टाइम्स’(पटना) में लिखी थी | उसी की कुछ
पक्तियां इस प्रसंग में उद्धृत करता हूँ |
हिंदी के जिस कवि का नाम पूरी तरह इस फॉर्म के साथ चस्पां
है, शायद वह अकेला नाम दुष्यंत कुमार का है | ठीक उसी तरह जैसे त्रिलोचन शास्त्री
का नाम हिंदी सॉनेट के साथ एकमेक हो चुका है | इधर कुछ दिन पहले अंग्रेजी में लिखी
ग़ज़लों के एक संकलन की समीक्षा भी देखने में आई थी | ऐसा मानते हैं कि ग़ज़ल
अरबी-फारसी से उर्दू में आई, लगभग जैसे सॉनेट इतालवी से अंग्रेजी में आया |...ग़ज़ल
का सूफियाना मानी है, प्रेमिका से बातचीत, या हृदय का हृदय से सीधा संवाद | लेकिन
गज़लगोई के कुछ बंधे-बंधाए नियम भी हैं | एक तरफ तो ये आज़ादी है कि इसके हर शेर में
एक नया विचार या भाव भरा जा सकता है जो पूरी तरह स्वतंत्र हो (कुछ १८वीं सदी के
अंग्रेजी ‘कप्लेट’ की तरह – हरेक अपने में पूर्ण) | लेकिन कुछ बंदिशें भी हैं –
जैसे हर शेर में दो मिसरे होते हैं, और ग़ज़ल का पहला शेर जिसे ‘मतला’ कहते है उसका
पहला मिसरा (या पंक्ति) दूसरे मिसरे के साथ हम-काफिया (एक जैसे तुक वाला) होता है,
यानि उनकी तुकें मिलती हैं | तुक के बाद एक (या एकाधिक) शब्द ऐसा होता है जिसे
‘रदीफ़’ कहते हैं | तुक तो दो अलग-अलग ऐसे शब्दों से बनता है जिनकी केवल ध्वनियाँ
मिलती हैं, पर रदीफ़ दोनों मिसरों में, और फिर आगे के हर दूसरे मिसरे में, बिलकुल
एक ही रहता है |
फ़िराक साहब की इस ग़ज़ल के मतले में काफिया और रदीफ़ दोनों
बिलकुल एक हैं, और आगे के शे’रों में भी
काफिए की पाबंदी आज़ाद है, केवल रदीफ़ का वज़न भारी रखा गया है, जैसे ऊपर वाले
शेर में | मतले का शेर, और आगे के एक और शेर से यह बात साफ़ होगी –
“ग़ज़ल के साज उठाओ बड़ी उदास है रात,
नवा-ए ‘मीर’ सुनाओ, बड़ी उदास है रात |”... (‘मीर’ का संगीत)
दिए रहो यूँ ही कुछ और देर हाथ में हाथ,
अभी न पास से जाओ, बड़ी उदास है रात |...
कोई कहो ये खयालों से और खाबों से,
दिलों से दूर न जाओ बड़ी उदास है रात |”
फिराक साहब की शायरी की सादगी ही उसकी सबसे बड़ी खूबसूरती
रही है | अपनी किताब में उन्होंने बताया है कि ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसमें कुछ कड़ी
पाबंदियां तो हैं, पर शायर रदीफ़ के सिवा काफिए के मामले में काफी आजादी ले सकता है* | मैंने अपनी समीक्षा में भी लिखा था –
ग़ज़ल एक ऐसा सांचा है जिसकी बंदिशें उसकी तरलता और लय को
जैसे चप्पू देती हैं, गतिशील बनाती हैं | और हम कह सकते हैं कि, जैसे सॉनेट की
बंदिशें हथकड़ियों की झनकार पैदा करती हैं, तो ग़ज़ल में वे कंगनों की खनक जगाती चलती
हैं |...ग़ज़ल के सांचे की ये बंदिशों से सजी आज़ादी उसके रूप का सबसे मोहक आकर्षण
साबित हुई है, हिंदी की ग़ज़लगोई में भी | संगीत में – ठुमरी में जिस तरह एक मुखड़ा
कायम करके तरह-तरह से बोल बनाए जाते हैं, ग़ज़ल भी कुछ वैसा ही समां बांधती है कविता
में | यहाँ भी हर शेर अलग भी होता है एक मानी में और फिर काफियों और रदीफ़ की
गूंजों से एक दूसरे में गुंथा भी रहता है |
फिराक़ से जुड़े इस प्रसंग में मैं उनके दो पत्रों से कुछ
पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहता हूँ - जो उन्होंने मेरे पिता को एक ज़माना पहले भेजा
था, जब मेरे पिता कलकत्ता में अंतिम दिनों (१९२५-’२६ ) में ‘उपन्यास तरंग’ का
सम्पादन कर रहे थे – जिनमें फिराक़ साहब के हिंदी-लेखन की कुछ नई जानकारी है | पत्रों में १०७, हिवेट रोड,इलाहाबाद का पता है
| ‘मतवाला’ से अलग होने के बाद शिवजी कलकत्ता में अलग एक-डेढ़ साल रहे थे |
यह पत्राचार उसी समय हुआ था, जब शिवजी ने फिराक़ साहब को
‘उपन्यास तरंग’ में लिखने के लिए आमंत्रित किया था | अत्युच्च अंकों के साथ बी.ए. पास करने के
बाद फिराक साहब का चुनाव आइ.सी.एस. में हो
गया था, जिससे इस्तीफ़ा देकर उन दिनों वे स्वतंत्रता आन्दोलन में जवाहरलाल के साथ
उ. प्र.कांग्रेस में संयुक्त सचिव थे | इससे पहले डेढ़ साल वे जेल में भी
रहे थे | जीवन में बहुत त्रासद उतार-चढ़ाव के बीच वर्षों बाद जब उन्होंने आगरा
विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. (फर्स्ट क्लास फर्स्ट )पास किया तो इलाहाबाद
विश्वविद्यालय ने बिना आवेदन दिए उनको सम्मानपूर्वक प्रोफ़ेसर पद पर नियुक्त किया
जिस पद से २८ वर्ष की सेवा के बाद वे रिटायर हुए | फिराक साहब के उन दो पत्रों से
उनके हिंदी-लेखन के विषय में पता लगता है | उनमें उन्होंने लिखा -
आपके पत्र द्वारा ‘उपन्यास तरंग’ नामी* मासिक पत्रिका के
निकालने की खबर मिली | उपन्यास और गल्प साहित्य कला के मुख्य और महान अंग हैं
|...इनके द्वारा मानवी चैतन्यता और चरित्र को अत्यंत सशक्ति* किया जा सकता है |
मैं बहुत कम लिखता हूँ लेकिन अगर कोई गल्प या छोटा उपन्यास लिखूंगा तो ज़रूर सेवा
में भेजूंगा |(२३.७.२५)... मैं अपनी सात कहानियों का संग्रह प्रकाशित करना चाहता
हूँ | कहानियों के नाम हैं – ‘अपराध स्वीकार’, ‘रेन बसेरा’, सफल जीवन’ [ जो क्रमशः ‘साहित्य’,
‘सरस्वती’,और ‘माधुरी’ में प्रकाशित हो चुकी हैं |] तीन कहानियां – ‘सल्लू
गड़ेरिया’, ‘बाइस्कोप’ और ‘जीवनोद्देश्य’ फिरवरी* १९२६ तक तैयार हो जाएँगी | इन
कहानियों की कद्र हिंदी संसार ने न की होती और अगर यह* कहानियां मुझे न पसंद होतीं
तो मैं हरगिज़ इन्हें प्रकाशित करने की चेष्टा न करता |...मैं कुल प्रकाशित
कहानियों की भाषा कुछ संशोधित और परिमार्जित करके आपकी सेवा में भेज देना चाहता
हूँ | (२४.१२.२५) ...
मुझे उर्दू साहित्य में अच्छी से अच्छी, ऊँची से ऊँची चीज़ें
मिल चुकी थीं...(फिर भी) मुझे एक असंतोष का आभास होता रहता था | शायद इस कारण से
कि मेरे अन्दर हिंदी विचारों और हिन्दू संस्कृति की गहरी से गहरी, बहुमूल्य से
बहुमूल्य सच्चाइयां और अनुभूतियाँ विद्यमान थीं जो उर्दू कविता में कम ही मिलती
थीं | हिन्दू संस्कृति का मिजाज़ और उस मिजाज़ की ध्वनि, उर्दू कविता में कदाचित ही
मिलती थी |...
* काफिया को अंग्रेजी में rhyme और रदीफ़ को refrain कहते हैं . फिराक साहब की कहानियों के विषय में यदि कहीं से सूचना मिल सके तो कृपया यहाँ comments में अंकित करें. फिराक साहब की अंग्रेजी में essays की एक किताब The Garden of Essays मैंने संपादित की है ( देखें आवरण चित्र). कभी उसके बारे में अपने एक फेसबुक पेज "किताबें मेरे सिरहाने" में लिखूंगा. उस किताब में मैंने कुछ नयी सामग्री भी जोड़ी है जैसे उनके दो आत्मकथात्मक लेख - The Making of a Poet और What Has Literature Meant to Me. फिराक साहब के बारे में कुछ और बातें समय मिलने पर लिखूंगा.
चित्र सौजन्य गूगल
आवरण-चित्र /आलेख
(C) डा.
मंगलमूर्त्ति
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