मैं और मेरी किताबें
किताबों से मेरा रिश्ता बहुत पुराना और अटूट है. यों कहूं तो पूर्व-जन्म का है. मेरा जन्म होने से पहले से ही मेरे पिता ने किताबें लिखने और प्रकाशित करने को अपनी आजीविका बना लिया था. जहाँ मेरा जन्म हुआ उससे पहले से ही वे किताबों की दुनिया में रम चुके थे. मैंने होश ही सम्हाला उस दुनिया में जहाँ किताबें लिखी और छापी जाती थीं. मैं उस किताबों की दुनिया में ही पला-बढ़ा, और वह सिलसिला कभी टूटा नहीं जो फिर मुझे प्राध्यापकी के पेशे में ले गया जहाँ किताबें जैसे मेरे रेशे-रेशे में समाई रहीं जीवन के इन अंतिम दिनों तक. वे मुझे हमेशा चारों तरफ से घेरे रहतीं, इस हद तक कि मैं जैसे खुद एक किताब में तब्दील होने लगा जैसे काफ्का अपनी कहानी के एक मकोड़े में.
किताबें ही मेरी ज़िन्दगी ही हो गयीं और फिर मैं किताबें लिखने लगा और मेरी किताबें छपने लगीं. खास तौर से जब मैं प्रोफेसरी से सेवा-मुक्त हुआ. मैं हिंदी में प्रकाशन-प्रक्रिया के जंजाल से पूरी तरह परिचित था इसलिए मैं प्रकाशन-जगत के माया-जाल से सतर्कतापूर्वक अलग ही रहा. मैंने प्रकाशकों द्वारा लेखक के भयावह शोषण को जीवन-भर बहुत निकट से जैसे अपने रक्त-प्रवाह में महसूस किया था. मैंने अपनी किताबें अपने छोटे मित्र प्रकाशकों से प्रकाशित करायीं. इसके दो निहितार्थ थे – किताबें जल्दी और लेखक के मनोनुकूल छप पातीं, और बड़े पूंजीपति प्रकाशकों के बदले छोटे संघर्षशील प्रकाशकों को आर्थिक लाभ मिलता. प्रकाशन-जगत हिंदी का हो या अंग्रेजी का तुम्बाफेरी सब जगह कमो-बेश एक जैसी ही है.
बहरहाल, पिछले दो-ढाई दशकों में हिंदी और अंग्रेजी में मेरी लगभग उतनी ही दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. वीणावादिनी की कृपा से मुझे ‘कलम का मजदूर’ बनने की ज़रुरत नहीं पड़ी, और मेरी अपनी समझ में मेरा सारा लेखन अपनी तरह से स्तरीय और उपयोगी रहा है, हालांकि उसका कहीं कोई शोर-शराबा नहीं हुआ, और न उसको पुरस्कार-सम्मान के हाट में कहीं जाना पड़ा – स्वान्तः सुखाय लेखन नियमित निरंतर होता रहा और एक सीमित पाठक-वर्ग में प्रतिष्ठित भी हुआ. मैंने नागार्जुन, अश्क और कमलेश्वर को – और न जाने कितने ओरों को जो बाद में बड़े लेखक बने - अपने पैसे से अपनी पुस्तकें छपवा कर परिचितों को स्वयं बेचते देखा-जाना था. मेरे लिए हिंदी के संघर्षशील लेखक का यह स्वाभिमान अभिनंदनीय रहा है. यदि हिंदी के लेखक के परिचित-मित्र ही उसकी पुस्तकें खरीद कर पढ़ें, तो वे सच्चे अर्थों में उसका सम्मान कर रहे होंगे. किसी लेखक की किताब आप खरीद कर पढ़ते हैं तो आप उसकी कलम को सम्मानित करते हैं. पुस्तकों को मुफ्त में पाने का चलन हमेशा के लिए ख़त्म होना चाहिए. पुस्तकें खरीदना सुसंस्कृति का वरण करना है. मुझे तो लगता है पुस्तक का पूरा मूल्य देकर लेखक से प्रत्यक्ष हस्ताक्षरित कराकर लेखक के साथ ‘सेल्फी’ लेकर पुस्तक खरीदने की संस्कृति विकसित होनी चाहिए. इससे ही साहित्य और लेखन-कर्म का सच्चा सम्मान होगा. साहित्य और सार्थक लेखन को पैसों के तराजू पर कभी नहीं तौला जा सकता, और ऐसा करना और मानीखेज हो जायेगा यदि ऐसा सम्मान-प्रदर्शन लेखक तक सीधे पहुँच सके. आप सोच कर देखें – वर्षों के शोध और परिश्रम के बाद लेखक एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखता है जो दशकों तक उपयोगी, रोचक और मार्ग-दर्शक बनी रहती है, और व्यापार में उससे प्राप्त धन का १०% भी लेखक को कभी प्राप्त नहीं होता, ९०-९५ % बाज़ार की पेट में गायब हो जाता है. इसका एक उदाहरण है इधर अंग्रेजी में मेरी लिखी ५०० पृष्ठों की डा. राजेंद्र प्रसाद की जीवनी जिसका आजतक, शर्तनामे के बावजूद, प्रकाशक ने एक पैसा मुझको नहीं दिया. इसके लिए प्रकाशक से मुकदमेबाजी क्या हर लेखक के लिए संभव है? हालांकि हिंदी प्रकाशन-जगत में ऐसे मुकदमों की भी एक लम्बी फेहरिस्त है. ऐसे में अच्छा साहित्य क्या खाक लिखा जायेगा ?
इसीलिए मैं निस्पृह भाव से अपनी किताबें लिखता और प्रकाशित करवाता रहा. मित्रों को भी कहा कि आधे दाम पर भी किताबें लेखक से खरीद कर पढ़िए. इसे लेखक का आर्थिक लाभ मत समझिये. यह एक अधिक सार्थक प्रक्रिया है जिससे पूंजीपति प्रकाशकों का शोषण-व्यापार नियंत्रित होगा, घटेगा. लेखकों का मनोबल सुदृढ़ होगा. पुस्तक-व्यवसाय को भी समाज-सेवा, सांस्कृतिक उन्नयन, के लिए प्रेरित किया जा सकता है. यह एक गंभीर प्रश्न है और सरकार को भी इस पर सोचना चाहिए. लेकिन आज की निर्मम बाजारू संस्कृति में शिक्षा, स्वास्थ्य, साहित्य – सब पूरी तरह बिकाऊ बन चुके हैं, और आज जीवन-मूल्यों के उन्नयन की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता. मैंने अखबारों-पत्रिकाओं में भी लिखना बहुत पहले ही बंद कर दिया क्योंकि पत्र-पत्रिका-संपादक भी अब मठाधीश हो गए हैं, कब आपकी रचना छापेंगे या नहीं छापेंगे इसकी ख़ामोशी को वे अपना विशेषाधिकार समझते हैं.
इसीलिए मैंने अब अपना लेखन नेट तक सीमित कर लिया है जिसके अनुमानित ५०-६० पाठक मुझे नियमित दिखाई देते रहते हैं.मेरे तीन ब्लॉग – vibhutimurty/ vagishwri/ murtymuse पर भी उनके पाठकों की उत्साहवर्द्धक संख्या दीख जाती है. एक शौकिया, गैर-पेशेवर लेखक के लिए बस इतना ही काफी है. मैं फेसबुक के बहस-मुबाहसे में भी नहीं पड़ता. सींगधारी बदहवासों से परहेज करता हूँ. ऐसे कई मित्रों को अमित्र भी करना पड़ा है. मेरा विश्वास सहिष्णुतापूर्ण मुक्त चिंतन में है. मैं कभी राजनीतिक विचारधाराओं का हामी भी नहीं रहा. मेरे पिता भी नहीं थे. उनके कई समानधर्मा भी नहीं थे. गुमनामी या कमनामी का भी अपना सुख है.
मेरी सबसे नई किताब Hanuman Hymns अभी आई है जिसके कुछ अंश भी मेरे ब्लॉग – vibhutimurty और murtymuse पर पढ़े जा सकते हैं. हनुमान मेरे सबसे प्रिय देवता हैं जिनके विषय में तुलसीदास कहते है –“और देवता चित्त न धरई | हनुमत सेई सर्व सुख करई ||” मेरी इस नई किताब में हनुमानजी की ही ११० स्तुतियाँ सरल, सुबोध अंग्रेजी में काव्य-रूप में सुखपूर्वक पढ़ी जा सकती हैं.
मेरी एक और नई किताब, मेरे द्वारा जयप्रकाश जी की एक मौलिक पुस्तक कुछ नयी रोचक सामग्री और मेरे खींचे कई चित्रों के साथ नए ढंग से पुनर्सम्पादित होकर शीघ्र प्रकाशित होने वाली है. उसमे पहली बार अमेरिका से प्राप्त उनकी एम्.ए. (ओहायो वि.वि.,१९२९) की थीसिस प्रकाश में आ रही है. आप यहाँ उसका आवरण-चित्र अभी देख सकते हैं. पुस्तक संग्रहणीय है, यद्यपि आजकल पुस्तकें कम ही लोग खरीद कर पढ़ते हैं, या पुस्तकें ही चंद लोग पढ़ते हैं, खरीदना तो दूर रहा.
मेरे द्वारा हिंदी से अंग्रेजी में अनूदित एक और पुस्तक ‘सदाक़त आश्रम’ जिसके लेखक प्रसिद्ध समाजवादी डा. रज़ी अहमद हैं, वह भी यथाशीघ्र बिहार विद्यापीठ से प्रकाशित होने वाली है. उसमें गाँधी के असहयोग आन्दोलन के समय मौलाना मजहरुल हक द्वारा स्थापित सदाक़त आश्रम की पूरी कहानी है जो बाद में कांग्रेस के राजनीतिक बिखराव और पतन के उपसंहार तक आकर समाप्त होती है.
किताबों के साथ मेरा जीवन-भर का पुराना रिश्ता अब धीरे-धीरे अपने गंतव्य पर पहुँच रहा है, जहाँ पहुँच कर वह पुस्तक-वांग्मय के महासागर में तिरोहित हो जायेगा, और यही वह अंतिम गंतव्य है जहाँ लेखक सदा के लिए स्वयं एक पुस्तक में परिवर्त्तित हो जाता है.