कविता का झरोखा : १
यहाँ हम एक नई श्रृंखला का प्रारम्भ कर रहे हैं –
विश्व-साहित्य की श्रेष्ठ कविताओं का मेरे द्वारा किया हुआ हिंदी अनुवाद, जिसकी पहली कड़ी में
अंग्रेजी-साहित्य की कुछ प्रख्यात कविताओं का अनुवाद आप पढ़ सकेंगे | मेरी इन
अनूदित कविताओं के साथ इन पर संक्षिप्त परिचयात्मक टिप्पणियां भी होंगी जो इनके
काव्य-सन्दर्भ पर प्रकाश डालेंगी | इस श्रृंखला की कविताएं सामान्यतः हर माह के
पहले और अंतिम रविवार को इस ब्लॉग पर उपलब्ध होंगी | इस बार इस श्रृंखला का प्रारम्भ हम रॉबर्ट
ब्राउनिंग (1812-’89 ) की प्रसिद्ध कविता ‘पॉर्फि़रियाज़ लवर’ से कर रहे हैं |
टेनिसन और ब्राउनिंग विक्टोरियन युग के दो सबसे बड़े कवि
माने गए है | दोनों का जीवन-काल लगभग पूरी उन्नीसवीं सदी में में फैला हुआ है |
लेकिन दोनों के काव्य अंतर्वस्तु और शिल्प दोनों ही स्तर पर बिलकुल भिन्न हैं |
जहाँ टेनिसन के काव्य में गीतात्मकता और संगीतात्मकता की प्रधानता है, वहीँ
ब्राउनिंग के काव्य में मनोवैज्ञानिकता और परुषता के साथ शिल्पगत खुरदरापन का
स्पष्ट बोध होता है |

इस लघु-नाट्य-कथा का वाचक-नायक एक अँधेरी बरसाती,
आंधी-तूफ़ान वाली रात में अपनी प्रेमिका की प्रतीक्षा कर रहा है, जब वह दबे पाँव
कमरे में अन्दर आती है, और पहले अलाव में बुझती आग को कुरेदकर सुलगाती है | फिर एक
के बाद एक सब कुछ जैसे पूर्व-निर्धारित-सा घटित होता जाता है, और मिलन के उस
उत्तप्त क्षण में ही नायक अपनी प्रेमिका के सुनहले बालों की चोटियाँ गूंथ कर
उन्हीं से उसका गला घोंट देता है | कविता में यह संश्लिष्ट भाव छिपा है कि जैसे
कवि मिलन-सुख के उस चरमोत्कर्षी क्षण को मृत्यु के रूप में स्थिर कर देना ही प्रेम
की पराकाष्ठा मानता हो |
पॉर्फि़रिया का प्रेमी
रॉबर्ट
ब्राउनिंग
कल
रात
ज़ोर
की
वर्षा
थी,
मनहूस
उठी
थी
आंधी
झीलों
को
मथती,
पेड़ों
को
तहस-नहस करती थी गरज-गरज ।
मैं
बेकरार
दिल
इंतज़ार
में
था
उसके,
जब
आहिस्ता
आई
पॉर्फि़रिया
दबे
पांव,
दरवाज़ा
बंद
किया, आंधी थम गई लगा,
घुटने
टेके, बुझते अलाव को सुलगाया,
लहराई
लपटें, गर्म हुआ कमरा सारा ।
फिर
उठी
और
धीरे-धीरे सरकाये सब,
भींगे
कपड़े, दस्ताने अपने, चादर भी;
फिर
हैट
उतारा,भींगी लटें खोल दी कुल,
और
बैठी
फिर
मेरे
पहलू
में
आकर
वो,
और
बोली
मुझसे
धीरे
से ।
जब
उसे
न
कोई
उत्तर
मिल
पाया
मुझसे,
बाहों
में
बांध
लिया
तब
उसने
तन
मेरा,
और
चिकने
गोरे
कंधों
पर
उसकी
फैली
थीं
लटें
सुनहले
बालों
की
उलझी-भींगी,
मेरे
गालों
को
सटा
लिया
सीने
में
और
छिपा
लिया
मेरा मुंह
सुनहले बालों में ।
मेरे
कानों
में
प्यार
घोलती
रही
- मगर
मन
में
जो
कुछ
था
घुमड़
रहा
उसके
कैसे
वह
कहे
खोलकर,
बस
उधेड़-बुन
लगी
रही,
कैसे
मन
की
आकांक्षाएं
हों
पूरी
अब,
कैसे
वह
अपना
सब
कुछ
आज
भेंट
कर
दे ।
पर
इतना
था
आवेग
प्रबल
उस
रात
वहां,
उस
रात्रि-भोज की मस्ती भी थी छलक रही,
आंधी-पानी में भींगी-भींगी आई वो,
और
मैं
भी
था
बस
व्यथितह्रदय
आकुल-व्याकुल ।
फिर
आंखों
में
उसकी
आंखें
डाले
देखा
मैं
गर्व
और
आनंद-भरा-सा तप्त हुआ,
जाना
मैंने
पॉर्फि़रिया
पुजारिन
थी
मेरी,
था
पूरित-गर्व ह्रदय मेरा चंचल-आकुल,
क्या
करूं
न
करूं
इसी
उधेड़-बुन
में
उलझा ।
इस
क्षण
तो
मेरी
थी -
वह
केवल
मेरी
थी,
बिलकुल
पवित्र
इतनी
सुंदर
आकर्षक
वो,
क्षण-भर सोचा, बल खाती लटें गूंथ डालीं,
और
उस
चोटी
को
नाजुक
गर्दन
में
उसकी
मैंने
लपेटकर
तीन
बार
कस
दी
कसकर,
बस
शांत हो गई वह, निढाल हो गई वहीं ।
कोई
भी
पीड़ा
उसे
नहीं
महसूस
हुई,
सच, उसको थोड़ी-सी भी पीड़ा नहीं हुई ।
मैंने
देखीं
पलकें
उघारकर
उसकी
फिर
-
जैसे
हो
भौंरा
कोई
बंद
कलि-उर में -
निष्कलुष
नयन
थे
हंसते-से उसके अब भी ।
ढीली
की
मैंने
फांस
लटों
की
थोड़ी-सी
औ’
लाली
गालों
पर
उसके
फिर
फैल
गई,
अपने
जलते
होठों
के
चुंबन
के
नीचे
सिर
उसका
मैंने
हल्के
से
फिर
थाम
लिया
और
सीने
पर
मेरे
उसका
सिर
टिका
रहा,
जो
अब
भी, हो निढाल, है उस पर टिका हुआ ।
मुस्कान-भरे थे होंठ गुलाबी, हर्ष-भरे,
जैसे
उसकी
हर
इच्छा
हो
गई
हो
पूरी,
औ’
घृणा-द्वेष
सब
छोड़
चुके
हों
उसका
तन,
अपने
प्रेमी
का
आलिंगन
मिल
चुका
उसे ।
पॉर्फि़रिया
का
वह
प्यार
- न
जाना
उसने
भी,
कैसे उसका अनुराग पूर्णता पायेगा,
औ’
इसी
तरह
अब
भी
हम
दोनों
बैठे
हैं,
ये
रात
हमारी
बीती
है
बस
इसी
तरह,
और
ईश्वर
ने
भी
एक
शब्द कुछ कहा नहीं ।
[अनुवाद : 1980 ]