शिवपूजन सहाय और ‘हिमालय’
मंगलमूर्त्ति
हिंदी नवजागरण-काल में साहित्यिक पत्रकारिता की कई अर्थों में एक विशिष्ट भूमिका रही | भारतेंदु से लेकर प्रेमचंद तक के सुदीर्घ कालखंड में हिंदी की साहित्यक पत्रकारिता ने कई प्रतिमान स्थापित किये जिनमें ‘सरस्वती’ से लेकर ‘हिमालय’ और ‘प्रतीक’ तक की लम्बी यात्रा हिंदी भाषा और साहित्य के विकास का एक अप्रतिम स्वर्णिम युग ही रहा | यही वह युग था जब हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता ने जहां एक ओर हिंदी भाषा और साहित्य का महार्घ परिष्कार और संवर्धन किया, वहीँ दूसरी ओर राजनीति के क्षेत्र में भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसका सबसे जाज्वल्यमान उदाहरण कलकत्ता से १९२३ में प्रकाशित होने वाला साप्ताहिक ‘मतवाला’ था, और जिसके वास्तविक सम्पादक शिवपूजन सहाय थे, यद्यपि सम्पादक के रूप में
अधिष्ठाता महादेव प्रसाद सेठ का नाम ही जाता था |
’मतवाला’ प्रखर राष्ट्रीय चेतना से मंडित एक हास्य-व्यंग्य
साप्ताहिक था और शिवजी के सम्पादन में
(हिंदी जगत में ‘मतवाला’-काल से ही
वे शिवजी नाम से प्रसिद्ध रहे) वह
बराबर उग्र राष्ट्रीयता की शक्तिशाली
अभिव्यक्ति का पत्र बना रहा | ‘मतवाला’ के बाद भी जो दर्जन-भर मासिक-पाक्षिक पत्र शिवजी
के सम्पादन में निकले उनमें भी शुद्ध साहित्यिकता का यह तत्त्व बराबर एक जैसा बना
रहा | साहित्यिक पत्रकारिता की यह लम्बी -
चार दशकों में प्रसरित - यात्रा शिवजी के जीवन में ‘मारवाड़ी सुधार’(१९२२), ‘गंगा’
(१९३१), ‘जागरण’ (१९३२),’हिमालय’ (१९४७) और ‘साहित्य’ (१९५०-१९६२) के साथ उनके
जीवन के अंतिम प्रहर तक चलती रही | इसीलिए यह कहने में कोई अत्युक्ति नहीं कि हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में शिवपूजन सहाय का योगदान सुदीर्घ
एवं अनन्य रहा | साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में इतनी लम्बी पारी संभवतः किसी
अन्य सम्पादक की नहीं रही |
शिवपूजन सहाय द्वारा संपादित सबसे पहला साहित्यिक मासिक ‘मारवाड़ी सुधार’
एक जातीय हित-संरक्षण का पत्र होते हुए भी शुद्ध साहित्यिक रंग में रंगा
हुआ स्वाधीनता-समर्थक पत्र था जिसकी सम्पादकीय टिप्पणियों के कुछ शीर्षक ही –
‘बिहार प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मलेन’, ‘हिंदी का घोर दुर्भाग्य’, ‘हिंदी
साहित्य सम्मलेन, कानपुर’ – इसका प्रमाण हैं | जातीय हित का पत्र होते हुए भी
‘मारवाड़ी सुधार’ में माधव शुक्ल, लाला भगवान दीन, हरिऔध, वियोगी हरि, नटवर जैसे साहित्यकारों की रचनाएँ बराबर छपती रहीं | ‘गंगा’ और ‘जागरण’ भी तीस के दशक
में शुद्ध साहित्यिक पत्र रहे जिनके बाद
चालीस के दशक में ‘हिमालय’ शिवजी की
साहित्यक पत्रकारिता के शिखर के रूप में ज्योतित हुआ |

‘हिमालय’ की मूल
संकल्पना बेनीपुरीजी की थी जब वे स्वतंत्रता-पूर्व अंतिम बार हजारीबाग जेल से
अप्रैल, १९४५ में मुक्त होकर पटना आये थे
| इसकी योजना के सम्बन्ध में शिवजी के नाम बेनीपुरी के १९४५-४६ के पत्रों में
चर्चा है (देखें: ‘शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र’, खंड ९, पृ. ११५-१८) | शिवजी की
प्रकाशित डायरी में भी ‘हिमालय’-प्रकाशन से लेकर उसके बंद होने तक की विस्तार से
चर्चा है (समग्र, पृ. २०१-५६) | इन दोनों
स्रोतों से कुछ उद्धारणीय पंक्तियाँ ‘हिमालय’-प्रकाशन के इस प्रसंग पर विशेष प्रकाश डालती हैं | बेनीपुरी ने अपने पत्र में लिखा (२८.११.४५) : “यह जानकार बड़ी प्रसन्नता हुई कि
श्रद्धेय मास्टर साहब ने हम लोगों की [‘हिमालय’ प्रकाशन] की योजना को स्वीकृत कर
लिया है |” ... “आते ही ‘हिमालय’ में मैं जुट जाऊंगा | (१.१.४६)
शिवपूजन सहाय ने अपनी डायरी में लिखा :
आज कॉलेज से एक वर्ष की छुट्टी मिल गयी |.... आज ‘हिमालय’
नामक मासिक पुस्तक निकालने के लिए एक योजना बनी | संपादकों में श्री दिनकरजी और
बेनीपुरीजी के साथ मेरा नाम भी लिखा गया | बिहार में कोई साहित्यिक मासिक नहीं है
| यदि एक बार प्रयत्न हो तो सफलता मिल सकती है |...पूज्य राजेन्द्र बाबू की
आत्मकथा आज ही प्रेस में दी गयी ‘हिमालय’ के लिए |....‘हिमालय’ में छपे लेखों के
लेखकों को (बेनीपुरी के आदेशानुसार) पुरस्कार भिजवाये | पूज्य राजेन्द्र बाबू एक
सौ रुपये | आचार्य नरेन्द्र देव पचास रुपये | जानकी वल्लभ शास्त्री बीस रुपये
|...आज ‘हिमालय’ भेजने में लगा रहा | ‘भण्डार’ में ‘हिमालय’ के लिए ठीक प्रबंध या
व्यवस्था नहीं है |.... ‘हिमालय’ ऑफिस में इतना अधिक काम है कि दस बजे दिन से आठ
बजे रात तक एक क्षण का भी अवकाश नहीं मिलता | कॉपी और प्रूफ का संशोधन, पत्रों का
उत्तर, पत्र-पत्रिकाओं का विहंगावलोकन, आगत-स्वागत | एक पियन भी नहीं है | (२१.८.४५-१४.३.४६)
राजेंद्र कॉलेज से शिवपूजन सहाय को एक वर्ष की छुट्टी
मुख्यतः राजेन्द्र बाबू की ‘आत्मकथा’ के सम्पादन के लिए दी गयी थी | राजेंद्र
कॉलेज की स्थापना भी १९३७ के प्रांतीय
चुनावों के बाद की बनी सीमित स्वराज्य वाली कांग्रेसी सरकारों के दौरान
स्वराष्ट्रिय शिक्षा-संस्थानों की स्थापना के क्रम में हुई थी | और नवम्बर, १९३९ में शिवपूजन
सहाय ‘पुस्तक भण्डार’, लहेरिया सराय से
राजेन्द्र कॉलेज के हिंदी विभाग में प्राध्यापक होकर चले आये थे | राजेन्द्र बाबू
भी अप्रैल, १९४५ में ही पटना जेल से छूट कर आये थे, जहां तीन वर्षों के कारावास
में उन्हों ने अपनी ‘आत्मकथा’ पूरी की थी | ‘हिमालय’ में उसके प्रकाशन की कहानी भी
रोचक है जो शिवपूजन सहाय की डायरी में अंकित है | उन्होंने लिखा :
मथुरा प्रसाद सिंह के साथ
सदाकत आश्रम गया गया | रामधारी भाई और बेनिपुरीजी
साथ थे | पूज्य राजेंद्र बाबू से
भेंट और बातचीत | उनकी आत्मकथा मांग लाया | पहले भी उन्होंने कहा था की इसको एक
बार पढ़ जाओ | मूल प्रति भी मिली | साहित्य की अमूल्य सम्पत्ति | ‘हिमालय’ के प्रथमांक
में जब ‘आत्मकथा’ का प्रारम्भिक अंश छप गया तब “पूज्य राज्जेंद्र बाबू ने ‘हिमालय’
देख सम्मति लिख दी | [लेकिन उसके हफ्ते-भर बाद
ही :]...पूज्य राजेन्द्र बाबू के प्राइवेट सेक्रेटरी श्री चक्रधरशरण जी
ने सदाकत आश्रम से फोन किया कि ‘आत्मकथा’ की मूल प्रति लौटाइये | ‘आत्मकथा’ के
प्रसंग में कई सज्जनों का भेद खुला | महान पुरुषों के साथ ऐसे गण रहते ही हैं जो
उनके पास किसी को टिकने नहीं देते |... ‘आत्मकथा’ की मूल प्रति लौटा दी | (६.१.४६-
१५.२.४६)

‘मतवाला’ और
‘जागरण’ की तरह ही ‘हिमालय’ हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता में एक युगांतरकारी पत्र
था जिसमें बिहार के सभी प्रमुख साहित्यकारों – जानकीवल्लभ शास्त्री, केदारनाथ
मिश्र ‘प्रभात’, नलिन विलोचन शर्मा, राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह, आदि के अलावा
बाहर के प्रायः सभी प्रमुख साहित्यकारों – आचार्य नरेंद्र देव, व्रजरत्न दास,
रायकृष्ण दास, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, रामचंद्र वर्मा, ‘बच्चन’,
हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रभाकर माचवे, आदि की रचनाएँ नियमित रूप से प्रकाशित हुई
थीं | इस के कुछ ही महीनों बाद ‘अज्ञेय’जी के सम्पादन में इलाहाबाद से ‘प्रतीक’ का
प्रकाशन हुआ | ‘हिमालय’ के अक्टूबर, नवम्बर, १९४६ और जनवरी, १९४८ के तीन अंकों में
‘प्रतीक’ के आगामी प्रकाशन की सूचना, प्रथामाकं का स्वागत और उसके ‘पावस’-अंक की
समीक्षा छपी थी | आगामी प्रकाशन की सूचना में शिवजी ने लिखा : “हिंदी के लब्धकीर्ति
लेखक और कवि श्री’अज्ञेय’जी के सम्पादकत्व में, ‘प्रतीक’ नामक द्वैमासिक पत्र
प्रकाशित होने जा रहा है |...हम बड़े उत्कंठित चित्त से ‘प्रतीक’ की प्रतीक्षा कर
रहे हैं |” फिर अगले अंक में प्रथमांक का स्वागत और उसमें प्रकाशित लेखों की
विवेचना करते हुए ‘प्रतीक’ प्रथमांक के सम्पादकीय
की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कीं : “हम समझते हैं की प्रगति प्राचीन मर्यादाओं को
भीतर से प्रसृत करके उदार बनाने में है -
परम्पराओं के खंडन में नहीं, बल्कि मंडन और उन्नयन में है |” तीसरे अंक में फिर
‘प्रतीक’ के ‘पावस’-अंक की प्रकाशित रचनाओं का संक्षिप्त परिचय देता हुए अंत में
लिखा : “ ‘प्रतीक का ‘साहित्य संकलन’ बहुत उच्च कोटि का है | उससे साहित्य का मान
बढ़ रहा है |”
‘हिमालय’ जहां उत्तर-छायावाद युग के एक श्रेष्ठ साहित्यिक मासिक के रूप में हिंदी
साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में एक प्रतिमान के रूप में अभिनंदित हो रहा था,
वहीँ उसी रूप-स्वरुप में अज्ञेयजी के सम्पादन में ‘प्रतीक’ प्रगतिशील साहित्य का
प्रवर्त्तन कर रहा था | यहीं यह भी उल्लेखनीय है कि जहां एक ओर साल–दो साल के भीतर
ही ‘हिमालय’ के रूप में उत्तर-छायावाद
युगीन शुद्ध साहित्यिक पत्रकारिता का अवसान
सन्निकट आ रहा था, वहीँ दूसरी ओर ‘प्रतीक’ प्रगतिशील साहित्य के उन्नयन के
पथ पर दृढ-पद शनैः-शनैः अग्रसर हो रहा था
| शिवजी के सम्पादन में ‘हिमालय’ का
प्रथमांक फरवरी, १९४६ में निकला था और
तेरह अंकों के बाद ही शिवजी को ‘हिमालय’ से प्रकाशकीय उदासीनता और अन्तर्विरोध के
कारण त्यागपत्र देना पड़ा था | ‘हिमालय’ के प्रकाशन के लगभग डेढ़ साल
बाद द्वैमासिक ‘प्रतीक’ का ‘ग्रीष्म अंक’ १९४७ में प्रकाशित
हुआ था | ‘हिमालय’ में उन अंकों की समीक्षा के आने के कुछ ही महीनों बाद विक्षुब्ध
होकर शिवजी ने ‘हिमालय’ से त्याग-पत्र दे दिया था | अज्ञेय ने
अपने पत्र (४.३.४८) में उनको लिखा :
‘प्रतीक’ के दोनों अंकों का परिचय ‘हिमालय’ में देखा था; रस
भी लिया था | आप ‘हिमालय’ से अलग हो गए यह जान कर दुःख हुआ |...जनवरी का ‘हिमालय’
(आपका संपादित) आज मुझे मिला है | बाद के अंकों का पता नहीं | किन्तु आपको जो ‘प्रतीक’
जाना था, उसका सम्बन्ध आपसे पहले था, ‘हिमालय’ से पीछे | वह अब भी नियमित रूप से
आपको जाता रहेगा | मैं यह बिलकुल नहीं चाहता कि आप किसी पत्र में परिचय लिख कर ही
‘प्रतीक’ को उपकृत कर सकते हैं; नहीं, उससे कहीं अधिक उपकारी होगा सीधे मुझे दिया
गया परामर्श, याकि व्यक्तिगत रूप से साहित्यिक चर्चा में किया गया उसका उल्लेख |
और ‘प्रतीक’ के लिखे हुए आपके लेख तो और भी गौरव की वस्तु होंगे – आगामी अंक के
लिए कुछ भेजिए न? [बिहार के लेखकों से सहयोग का ] आप मार्ग खोलें तो वह पंथ बने |....
‘हिमालय’ के अंक प्रारम्भ से ही विलम्ब से निकलते रहे थे |
पहला अंक जहां फरवरी, १९४६ में निकला था वहीं दूसरे वर्ष का पहला अंक जनवरी, १९४८
में निकला | पुस्तक-भंडार के अधिष्ठाता रामलोचन शरण जी ‘हिमालय’ के प्रति शुरू से ही उदासीन थे |
लेखकों को पुरस्कार देने के प्रश्न पर भी वे प्रसन्न नहीं रहते थे | ‘हिमालय’
सम्पादन विभाग को भी किसी प्रकार का कार्यालयीय सहयोग नहीं मिलता था | बेनीपुरीजी की लगातार अनुपस्थिति भी उनको खलती रही थी और
अंततः उन्होंने जोर दे कर बेनीपुरीजी का नाम दसवें अंक के बाद से सम्पादक-द्वय में
से हटवा दिया था | इस पर जो संपादकीय टिप्पणी शिवजी ने लिखी थी उसको भी छपने से
रोक दिया गया था | इन्हीं सब कारणों से
‘हिमालय’ के सम्पादक और प्रकाशक के बीच तनाव काफी बढ़ गया जिससे अत्यंत दुखी और
क्षुब्ध होकर अंततः शिवजी को ‘हिमालय’ से
त्यागपत्र देना पड़ा | शिवजी तो सितम्बर, १९४७ में ही कॉलेज की छुट्टी
समाप्त होने पर छपरा लौट आये थे और उसके बाद
वहीं से ‘हिमालय’ सम्पादन का काम करने लगे थे | अपनी डायरी में उन्होंने लिखा :
प्रातः काल छपरा पहुँच कॉलेज
गया | आज की डाक से ‘हिमालय’ के बारहवें अंक के लिए लेखादि भेजा | प्रकाशक बेनीपुरीजी का नाम नहीं देना चाहते | मैं
बारहवें अंक तक उनका नाम देकर ‘हिमालय’ का काम छोड़ देना चाहता हूँ | सम्पादक की
स्वतंत्रता में प्रकाशक का हस्तक्षेप असह्य है |
...लहेरिया सराय से खबर पटना आई है कि शिवपूजन ‘हिमालय’ छोड़ भी दें तो कोई
हानि नहीं, पर बेनीपुरी का नाम संपादकों में नहीं छपेगा |...प्रकाशकों की इच्छा
संपादकों की इच्छा के ऊपर अंकुश रखती है |सम्पादक की स्वतंत्रता में बाधा देना ही
प्रकाशक का गर्व है |...पटना से पत्र आया है कि मेरा ही नाम छाप कर ‘हिमालय’ का
ग्यारहवां अंक निकाल दिया गया और बेनीपुरीजी का नाम हटा दिया गया | यह अपमान केवल
इसीलिए खून के घूँट की तरह पी जाना पड़ता है कि ‘हिमालय’ किसी तरह जीवित रहे | ....आज बारहवें अंक (‘हिमालय’) का सारा काम
समाप्त हो गया | .... ‘हिमालय’ का अंतिम
(बारहवां) अंक निकल गया | मास्टर साहब (रामलोचन शरण) ने कहा कि छत्तीस हज़ार घाटा
हुआ है, बंद करो |(४.९.४७-२.११.४७)

बेनीपुरीजी
ने, इससे पहले ही पटना से छपरा
भेजे, शिवजी को अपने पत्र (४.१०.४७) में लिखा : “श्रद्धेय भैया | आपका २९/९ का
पत्र मिला | किन्तु, इसके पहले ही ‘हिमालय’ के
सम्पादन के बारे में तय हो चुका था | बल्कि आपका नाम छप भी चुका था | अतः
इस सम्बन्ध में मेरी सहमति या असहमति का कोई मूल्य नहीं | आप चिंता मत कीजिये |
मास्टर साहब ने अपना बिगाड़ा है, मेरा क्या बिगाड़ लेंगे ? विश्वास कीजिये, ऐसा कुछ
नहीं करूंगा जिससे आपको जरा भी मानसिक या शारीरिक कष्ट हो |” (‘समग्र’ ९ , पृ.११९) ‘हिमालय’ की इस सारी उलझन के पीछे कई तरह की बातें थीं –
बेनीपुरीजी का कांग्रेस से अलग सोशलिस्ट
पार्टी में होना, बेनीपुरीजी का पूंजीपतियों से स्वाभाविक विरोध, प्रकाशक का
‘हिमालय’ के सम्पादक-द्वय के यश को न झेल
पाना, आर्थिक और सम्पादकीय मामलों में
प्रकाशक का अनुचित हस्तक्षेप, ‘भण्डार’ में सम्पादक-द्वय के प्रति कुछ
लोगों द्वारा भीतर-भीतर चलने वाला गहरा षडयंत्र, आदि इसके कई कारण थे | यद्यपि
प्रकाशक और सम्पादक के बीच में आर्थिक लाभ-हानि के प्रश्न को लेकर परस्पर विरोध को
हम हिंदी का दुर्भाग्य ही मानेंगे | इस प्रसंग में ‘मतवाला’ से लेकर ‘हिमालय’ तक शिवजी के अनुभव लगभग हर बार
अत्यंत क्षोभकारी ही रहे | लगभग इन्हीं दिनों सा. ‘स्वदेश’ के (१९.११.४७) अंक में शिवजी की ‘सम्पादक के अधिकार’ शीर्षक टिप्पणी की ये पंक्तियाँ
यहाँ इस प्रसंग में उद्धरणीय हैं | वे लिखते हैं :
मैं पिछले तीस
वर्षों से देखता आ रहा हूँ कि हिंदी के पत्र-संचालक , जिनमें अधिकतर पूंजीपति हैं –
और जो पूंजीपति नहीं हैं वे भी पूंजीपति की मनोवृत्ति एवं प्रवृत्ति के शिकार हो
ही जाते हैं – संपादकों का वास्तविक महत्त्व नहीं समझते, उनका यथोचित सम्मान नहीं
करते, उनके अधिकारों की रक्षा पर ध्यान नहीं देते, उनकी कठिनाइयों का सपना भी नहीं
देखते | (‘समग्र’ ३/३००)
इन पंक्तियों का उन्हीं दिनों चल रहे इस ‘हिमालय’-प्रसंग से कोई सम्बन्ध नहीं है, यह
नहीं कहा जा सकता | २१
जनवरी, १९४८ को शिवजी ने ‘हिमालय’
से अपना त्यागपत्र ‘भण्डार’ को पटना भेज दिया | उससे पहले उन्होंने ‘हिमालय’ के वर्ष २,
अंक १ (जनवरी, १९४८) के लिए अपनी सम्पादकीय टिप्पणियाँ भेज दीं थीं | लेकिन जब अंक
प्रकाशित हुआ तो नियमानुसार पुस्तक के अंत में प्रकाशित होने वाली सम्पादकीय
टिप्पणियाँ, इस बार शुरू में ही छपीं, और पहले प्रत्येक टिप्पणी के अंत में जो
‘शिव.’ नाम छपता था, वह इस बार टिप्पणियों के नीचे नहीं छपा | पूर्व के अंकों में सम्पादकीय टिप्पणियों के
नीचे उनके लेखकों - बेनीपुरीजी और दिनकरजी
– का भी नाम रहा करता था | इस बार तर्क शायद ये था कि अब चूँकि केवल शिवजी ही सम्पादक रह गए थे इसलिए
उनका नाम टिप्पणियों के नीचे देना ज़रूरी नहीं था | परन्तु, इससे भी आश्चर्यजनक और
आपत्तिजनक यह था कि इस अंक के लिए जो टिप्पणियाँ शिवजी ने लिखी थीं उनमें से चार
टिप्पणियों को नहीं छापा गया था | संभवतः
इसके पीछे भी शिवजी को आहत करने की मंशा उसी बड़े षडयंत्र का एक हिस्सा थी | इस प्रसंग में शिवजी ने बहुत मर्माहत होकर अपनी डायरी में लिखा :
‘हिमालय’ से अलग होने की पीड़ा शिवजी के ह्रदय में आगे भी
बनी रही लेकिन अब उन्होंने एक प्रकार से निश्चय कर लिया था कि वे भविष्य में और किसी पत्रिका का सम्पादन नहीं करेंगे | बहुत
क्षुब्ध होकर उन्होंने डायरी में लिखा, जैसा वे सामान्यतः लिखते नहीं थे, जिसमें
एक छिपा हुआ इशारा भी था : “उनको (मास्टर साहब को) बहुत लोग मिलेंगे, मगर मेरे ऐसा
परिश्रमी हज़ार रूपए मासिक पर भी न मिलेगा | ‘हिमालय’ में जितनी मेहनत-मशक्कत मैनें
की और सच्ची लगन लगाई, वैसा करने वाला यहाँ कहाँ मिलेगा |” और शिवजी के ह्रदय से
निकली यह बात जल्दी ही सच साबित हुई और ‘हिमालय’ सदा के लिए बंद हो गया |
उन्हीं दिनों ‘पुस्तक भण्डार’ से शिवजी की ‘देहाती दुनिया’,
‘विभूति’, साहित्य सरिता’ – जो प्रवेशिका-पाठ्यक्रम में चलती थी और ‘भण्डार’ के
लिए एक दुधारू गाय जैसी थी – ऐसी कई
किताबें छपती थीं | शिवजी ने उनके विषय में पुस्तक-भण्डार को एक कड़ा पत्र भेजा कि “मेरी पुस्तकों को अब न छापिये और न बेचिए ही “
| लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ और आगे भी वर्षों तक ये पुस्तकें ‘भण्डार’ में
छपती-बिकती रहीं | शिवजी का यह पत्र, जो एक कानूनी नोटिस की भाषा में लिखा गया था
‘समग्र (१०) में ‘हिमालय-सम्बन्धी पत्राचार’ के अंतर्गत प्रकाशित है और वहाँ देखा जा सकता है | डायरी
में शिवजी ने प्रकाशनार्थ भेजी गयी जिन चार सम्पादकीय टिप्पणियों की चर्चा की थी
उनमें एक का शीर्षक उन्होंने ‘भुज-भंग’ दिया था जिसका इशारा बेनीपुरीजी के हटाये
जाने की ओर था | तीन और टिप्पणियों के शीर्षक थे – ‘हमारे प्रशंसा पत्र’,
‘जिज्ञासुमित्र’ और ‘हमारे नए सहयोगी ’ – जिनमें केवल अंतिम वाली टिप्पणी प्रकाशित
हुई, शेष तीन टिप्पणियों को नहीं छापा गया, और वे रामलोचन शरण के दराज़ में गुम हो
गयीं | जिस पत्र में टिप्पणियों के
‘नापसंद’ होने की बात की गयी थी वह परमेश्वर सिंह ने शिवजी को लिखा था | ‘हिमालय’
के बंद होने की बात जब होने लगी थी तो पटने के एक अन्य प्रकाशक परमेश्वर सिंह ने रामलोचन शरण से उसको अगले दस साल तक प्रकाशित करने का ठीका लिया
था, यद्यपि दूसरा साल लगते-लगते ही वह बंद हो गया |
परमेश्वर सिंह के पत्र का उत्तर शिवजी ने बहुत क्षुब्ध होकर
लिखा : “क्या किसी को पसंद आने के लिए ही मुझे टिप्पणी लिखनी चाहिए ? जो आप लोग
पसंद करेंगे वही मुझको लिखना पड़ेगा ? मैं अपने पाठकों के लिए सम्पादकीय लिखता हूँ,
आप लोगों के लिए नहीं |” इस लम्बे पत्र में शिवजी ने परमेश्वर सिंह के अटपटे पत्र
का कड़े शब्दों में तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया था | लेकिन शिवजी के कई प्रकाशकों को
लिखे पत्र तो उनके संग्रह में होने के कारण उपलब्ध रहे और प्रकाशित हो गए, किन्तु
प्रकाशकों को लिखे पत्र शिवजी के पत्र –
जिनमें बहुत सारे रहस्यात्मक प्रसंगों पर प्रकाश पड़ने की संभावना थी, मेरे अथक
प्रयास के बाद भी नहीं उपलब्ध हो सके | सौभाग्य से ‘हिमालय-सम्बन्धी पत्राचार’ के
अंतर्गत शिवजी और परमेश्वर सिंह का यह परस्पर पत्राचार ( कुल १३ पत्र ) इस लिए उपलब्ध हो सका क्योंकि परमेश्वर
सिंह ने ये सारे पत्र शिवजी को लौटा दिए थे|
इस लम्बे दस्तावेजी विवरण का तात्पर्य मात्र यही है कि
साहित्यिक पत्रकारिता के अपने कार्य-काल में उस समय के संपादकों का जीवन-संघर्ष
कटु अनुभवों से कितना आक्रांत होता था, जब पूंजीवादी प्रकाशकों द्वारा उनका निर्मम
शोषण होता था | शिवजी ने पचास के दशक में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन की शोध-पत्रिका ‘साहित्य’ में लेखक-पाठक-सम्पादक-प्रकाशक के परस्पर संबंधों पर
कई सम्पादकीय टिप्पणियाँ लिखी थीं जिनसे इस चतुर्भुजी समस्या पर पर्याप्त प्रकाश
पड़ता है, और जो हिंदी के विकास की राह में सबसे बड़ा अवरोध है|
शिवजी ने अपनी टिप्पणी ‘सम्पादक के अधिकार’ में – जो
‘हिमालय’-सम्पादन की अवधि में ही लिखी गयी थी – केवल तीन ऐसे उदारचरित प्रकाशकों
का नाम लिया है : सर्वश्री चिंतामणि घोष (‘सरस्वती’), रामानंद चटर्जी (‘विशाल
भारत’) और शिवप्रसाद गुप्त (‘आज’, ज्ञानमंडल, काशी) जिन्होंने अपने संपादकों के
सम्मान का एक आदर्श स्थापित किया | उस टिप्पणी में शिवजी ने महावीर प्रसाद
द्विवेदी और चिंतामणि घोष के परस्पर मधुर सहयोगपूर्ण सम्बन्ध के विषय लिखा है कि
जब कभी द्विवेदी जी इंडियन प्रेस से अपने गाँव जाने लगते तो उनको बग्गी पर चढाने
में चिंतामणि बाबू स्वयं द्विवेदी जी का सामान ढो कर उनको बग्गी में बैठाते थे |
चिंतामणि बाबू ने द्विवेदी जी की अपने गाँव (दौलतपुर) में रह कर ‘सरस्वती’ का
सम्पादन-कार्य करने की सुविधा के लिए उनके गाँव में डाकखाना खुलवाने में भी पूरी मदद
की थी | आज लगता है – कैसे थे वे दिन, और कहाँ गए वे लोग!
आज तो विचारणीय यह है कि सम्पादक –प्रकाशक का यह अंतर्विरोध आज की हिंदी पत्रकारिता का कितना गंभीर अभिशाप बना हुआ है | और उसी प्रकार लेखक और प्रकाशक का कापीराईट और रॉयल्टी को लेकर परस्पर अवांछनीय दुर्भाव भी हिंदी पत्रकारिता और हिंदी-लेखन के विकास और उन्नयन में एक अलंघ्य, गत्यवरोधक पहाड़ बन कर खड़ा है | लेखक-सम्पादक-प्रकाशक के परस्पर संबंधों के प्रसंग में शिवजी के अपने क्लेशकारी अनुभव उनके उपलब्ध पत्रों, उनके लेखन, और विशेषतः उनकी डायरियों में भरे पड़े हैं, जो हिंदी नवजागरण की अलग ही एक व्यथा-कथा उजागर करते हैं|
चित्र: १. आ. शिवपूजन सहाय (१९४५) २. 'हिमालय' अंक-१ का मुखावरण (चित्रकार: उपेन्द्र महारथी) ३. डा. राजेन्द्र प्रसाद की 'आत्मकथा' के अंश ४. श्री राम वृक्ष बेनीपुरी ( १९५५), ५. श्री राम लोचन शरण ( १९३९)