हिंदी नवजागरण की दो विभूतियाँ
मंगलमूर्त्ति
मेरे जीवन के प्रारम्भिक पचीस वर्ष अपने पिता (शिवपूजन सहाय) के जीवन के अंतिम पचीस वर्षों तक रेल की पटरियों की तरह
समानांतर गुज़रे | इन ढाई दशकों में मैं प्रायः नित्यप्रति अपने पिता के
सानिध्य में ही रहा| पांच-सात
वर्षों तक पुस्तक भंडार (लहेरियासराय) में
सम्पादक के रूप में काम करने के बाद जब वे चालीस के दशक के प्रारम्भ में ही
राजेंद्र कॉलेज (छपरा) में हिंदी के प्रोफेसर-पद पर आये तो वहाँ आने के बाद, साल लगते-लगते ही, मेरी माता का देहांत हो गया, जब
मैं लगभग तीन-चार साल का ही था; और फलतः एक मातृहीन शिशु के
रूप में तभी से मैं अपने पिता के अंग लग गया (पिता
ने अपनी डायरी में लिखा: ‘मंगलमूर्त्ति रात में गोद में
सट कर सोता है’,‘उसको छाती से सटा कर चूमा-चाटा’)| और जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, फिर तो लगभग उनके जीवन के
अंतिम क्षण तक मैं बराबर उनके साथ ही रहा|
मेरे पिता के जीवन में ढाई दशकों का यह काल-खंड उनके साहित्यिक जीवन की अंतिम तिहाई के रूप में उनके लिए सर्वाधिक
ख्यातिलब्धता एवं कार्य-संकुलता का समय रहा, और
इस पूरी अवधि में मैं लगभग नित्यप्रति उनके साथ ही रहा| इस
काल-खंड में जहां मैं शैशव से अपनी युवावस्था की ओर बढ़ रहा था, मेरे पिता अपने जीवन की संध्या की ओर अग्रसर हो रहे थे| एक
प्रकार से यह पूरा काल-खंड मेरे अपने
जीवन में एक आरोह और मेरे पिता के जीवन में उसके अवरोह की तरह गतिमान रहा|
राजेंद्र कॉलेज (छपरा) से
मेरे पिता १९५० में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के निदेशक हो कर पटना आ
गए थे | परिषद् का कार्यालय भी तब बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन भवन (कदमकुआं) में
ही स्थित था, और वे हमलोगों के साथ वहीं भवन में पीछे की ओर एक छोटे से
किराए के आवास में रहते थे | पटना आने के बाद से ही मेरे
पिता के स्वास्थ्य में तेजी से गिरावट आने लगी थी | माँ
की असमय मृत्यु के कारण भी उनके स्वास्थ्य की देखभाल करने वाला वैसा अब कोई नहीं
रहा था | हम चार भाई-बहनों – जिन
सबकी उम्र अभी ४ से ११ वर्ष के बीच ही थी – उनके पालन-पोषण, देख-भाल का भार भी मेरे पिता पर
ही आ गया था | ऐसी विषम परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए भी इस पूरे काल-खंड में मेरे पिता अपनी सघन साहित्य-सेवा में समर्पित रूप से लगे
रहे थे, यद्यपि प्रूफ पढने और ग्रंथों के संपादन-संशोधन से उनको फिर भी मुक्ति नहीं मिली थी | बल्कि
देख-रेख और सुविधाओं के अभाव में उनके स्वास्थ्य की स्थिति बहुत
बिगड़ती जा रही थी | पटना आने पर पहले मधुमेह का आक्रमण हुआ जिसने शीघ्र ही
तपेदिक का रूप ले लिया | फलतः १९५३-’५४ में लगभग एक साल तक वे पटना में ही टी.बी. अस्पताल में भरती रहे | तब मैं
विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था और उनकी चिकित्सा और तीमारदारी का सारा दायित्त्व
पूरी तरह मेरे ऊपर था|
छपरा में बीते दस वर्ष और फिर पटना के अंतिम तेरह वर्ष – पिता के जीवन की अंतिम तिहाई – लगभग ढाई दशकों का यह दीर्घ
काल-खंड मेरे अपने प्रारम्भिक जीवन का भी सबसे महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावनीय समय रहा, जब मैंने अपने पिता के साहित्यिक जीवन को बहुत निकट से देखा और उसकी गहरी छाप
मुझ पर पड़ी | दशकों बाद पिता के विशाल साहित्यिक संग्रह को संरक्षित करते
हुए और उनकी विपुल साहित्य-राशि को पढ़ते और संपादित करते
हुए, जैसे मैंने उन ढाई दशकों को दुबारा-तिबारा जिया – उनके सुदीर्घ काल-खंड में प्रसरित साहित्य-लेखन, उनके विशाल पत्राचार, उनकी डायरी आदि को बार-बार पढ़ते-गुनते हुए – मैंने हिंदी के निर्माणकाल के एक तपस्वी साधक साहित्यकार के कठिन, संघर्षशील जीवन को, उसके अंतिम चरण में, जैसे दिन-प्रतिदिन साथ-साथ जिया | काल-क्रम में उनके साहित्य के निरंतर स्वाध्याय से मेरे मानस पर
धीरे-धीरे पिता की छवि पर उनका साहित्य-सृजक-सेवक रूप स्वतः अध्यारोपित होता चला गया|
छपरा में रहते हुए चालीस के दशक में भी मैंने अपने पिता के
प्राध्यापकीय एवं साहित्यिक जीवन को अपनी हथेली की रेखाओं की तरह देखा था, और वहाँ स्कूल में पढ़ते हुए घर पर और नगर के साहित्यिक उत्सवों में भी पिता से
मिलने वाले अनेक साहित्यकारों का अविरल स्नेह
मुझे स्वाभाविक रूप में मिलता रहा था | उन दिनों की पिताजी की डायरी
को बाद में पढ़ते हुए बचपन की मेरी बहुत सारी स्मृतियाँ जाग उठीं - जब निराला एक दिन छपरा में हमारे घर पर आये थे, और
उन्होंने सहसा मुझको अपने कंधे पर बैठा लिया था, जब
वे मेरे पिता (जिन्हें हमलोग ‘बाबूजी’ कहते
थे) से बातें करते रहे थे | उन
दिनों की डायरी पढ़ते हुए ही उस दिन का चित्र भी मेरे स्मृति-पटल पर उभर आया जब एक दिन बाबूजी मुझे
लेकर छपरा स्टेशन गए थे जहाँ मुजफ्फरपुर के सुहृद-संघ
के साहित्योत्सव से लौटते हुए पं. माखनलाल चतुर्वेदी, सोहनलाल द्विवेदी, श्रीनारायण चतुर्वेदी, वाचस्पति पाठक, बेढब बनारसी आदि से भेंट हुई थी और माखनलाल जी ने मुझको एक
संतरा खाने को दिया था | स्वभावतः उस समय उनलोगों की साहित्यिक बातचीत से ज्यादा
मेरा ध्यान उस संतरे पर ही रहा, और उसका रस मेरी स्मृति में
बसा रहा ! हालाँकि डायरी में बाबूजी ने चतुर्वेदी जी की कही हुई एक
कहानी का भी ज़िक्र किया है जब बम्बई में एक किसान की तरह एक मस्जिद की सीढी पर बैठ
कर उनके गन्ना चूसने पर उनको वहाँ बोहरा
मुसलामानों की गालियाँ सुननी पड़ी थीं | डायरी में उसी जगह उन्होंने कुछ अन्य स्नेह-प्रसंगों
की भी चर्चा की है जब कई अवसरों पर माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण
गुप्त और जयशंकर प्रसाद ने मेरे बड़े भाई आनंदमूर्त्ति और मुझको अपना आशीर्वाद दिया
था | बाबूजी ने वहाँ एक विशेष अवसर के बारे
में भी लिखा है जब बालक आनंदमूर्त्ति ने काशी-प्रवास के दिनों में ही घर आये हुए प्रसाद जी के पानी पिए हुए गिलास का जूठा
पानी उठा कर पी लिया था | इस पर बाबूजी ने लिखा है: ‘मुझे बड़ा खेद हुआ, लेकिन पत्नी ने कहां जाने
दीजिए, यह भी बाबू साहब के समान कवि और नाटककार होगा!’
पिता के पत्रों और उनकी डायरियों को बार-बार पढ़ते हुए ऐसे बहुत सारे साहित्यिक प्रसंग मिलते हैं जिनकी छाप मेरे स्मृति
पटल पर अमिट हो गयी है | छपरा-प्रवास
में बिहार के कवि-साहित्यकारों – आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, ‘दिनकर’, प्रो.जगन्नाथ प्रसाद मिश्र, डा.नगेन्द्र आदि - के दर्शन तो घर पर भी प्रायः
ही हुआ करते थे, अन्य प्रान्तों के साहित्यकार भी कॉलेज के साहित्योत्सवों
में अक्सर आते रहते थे | मैं भी जिद करके बाबूजी के साथ इन उत्सवों में उनके साथ जाता था और उनके कारण ही वहां सभी
साहित्यकारों का सहज स्नेह पाता था| ऐसा ही एक साहित्योत्सव जब
कॉलेज में हुआ था तब मैंने बड़ी-बड़ी मूंछों-वाले पं. बनारसी दास चतुर्वेदी को भी देखा था, जिन्होनें
मुझको खूब प्यार किया था, और जिनके लम्बे-लम्बे १०० से ज्यादा पत्र मेरे पिता के नाम मैनें बाद में पढ़े, और उन दिनों के बहुत सारे साहित्यिक प्रसंगों से परिचित हुआ |
इन्हीं दिनों कॉलेज के ही इन साहित्यिक समारोहों में पं. राहुल सांकृत्यायन भी दो बार आये थे, लेकिन छपरा में घर पर उनके
आने की याद मुझे नहीं है | डायरी में बाबूजी ने ज़रूर
लिखा है (४.४.४३) कि ‘रात दस बजे के लगभग श्रीराहुल सांकृत्यायनजी आये| बिहार
प्रांतीय किसान सभा के लिए एक रूपया चंदा ले गए’| और
फिर दुबारा लिखा (१७.१२.४३) :
आज शाम को साढ़े छ बजे से कॉलेज में
फिलोसफी विभाग की ओर से एक सभा हुई | राहुल
बाबा का व्याख्यान हुआ | उन्होंने
कहा कि भारतीय दर्शन पर यूनान (ग्रीक) के दर्शन का बड़ा प्रभाव पड़ा है | गौतम, कणाद, भारद्वाज, याज्ञवल्क्य
आदि को उन्होंने बुद्धदेव के बाद का बताया | इतिहास की कसौटी पर उन्होंने प्राचीनता को रगड़ डाला | पुरानी पीढ़ी से नयी पीढ़ी अधिक सभ्य और ज्ञान-संपन्न है? तार्किकों की संख्या इस युग
में बढ़ रही है|
उस वक्त का राहुल जी का न तो घर पर आना मुझे याद आता है और
न भारतीय दर्शन पर उनके भाषण को मैं कुछ भी समझ पाता यदि मैं उस सभा में गया भी
होता तो | निश्चय ही राहुल जी से मेरे पिता का परिचय ‘मतवाला’-काल से ही रहा होगा | राहुलजी के कुल ५ पत्र ही
बाबूजी के संग्रह में हैं, जिनमे पहला पत्र ७ मार्च, १९३२ का है जब राहुलजी विद्यालंकार कॉलेज, केलानिया, श्रीलंका में प्राध्यापन कर रहे थे, और मेरे पिता काशी में रहते
हुए ‘जागरण’ (पाक्षिक) का
सम्पादन कर रहे थे | उस पत्र से ही स्पष्ट है कि तब तक उन दोनों का परिचय प्रगाढ़
हो चुका था | पत्र इस प्रकार है: ‘प्रिय शिवपूजन बाबू, मेरी तिब्बत यात्रा को पं. विनोदशंकर व्यासजी ने छपवाने
को लिया था | उसके विषय में कुछ नहीं मालूम हुआ | शायद
मेरा पत्र उनके पास न पहुंचा हो | उनसे उसके बारे में पूछें, क्योंकि छपना शुरू होने पर ही मैं बाकी अंश लिखूंगा |... (पत्र की प्रतिकृति देखें |)
‘जागरण’ के २० मई, १९३२ के आठवें अंक में उनका कोलम्बो से ‘समंतकूट’ पर्वत
(ऐडम्स पीक’) की यात्रा का विवरण भी
प्रकाशित हुआ था | इस यात्रा-विवरण को पढने से स्पष्ट लगता
है कि लेखन के प्रति राहुलजी का दृष्टिकोण सर्वथा अनुभव-धर्मी
और तथ्यपरक था | वे सहज भाव से अपने चिंतन प्रवाह में लिखते जाते थे जहाँ
विचार-धारा अपनी यायावरी गति से आगे बढती जाती थी | शिवपूजन सहाय के डायरी अंश में और राहुलजी वाले पत्र में भी उनके
व्यक्तित्त्व के अक्खडपन और उनके परंपरा-आग्रही न होने के संकेत मिल
जाते हैं |
शिवपूजन सहाय और राहुल संकृत्यायन का यह परस्पर स्नेह-संपर्क दोनों के जीवन-पर्यंत अटूट बना रहा| दोनों एक दूसरे के एक विशेष अर्थ में समकालीन भी रहे, क्योंकि
जन्म और मृत्यु में भी दोनों एक-दूसरे के निकटतम रहे – शिवपूजन सहाय का जन्म ९ अगस्त, १८९३ को हुआ और उससे ठीक चार
महीने पहले ९ अप्रैल, १८९३ को राहुलजी का जन्म हुआ, और फिर दोनों की मृत्यु भी एक ही वर्ष १९६३ में लगभग उतने ही अंतर पर क्रमशः
२१ जनवरी और १४ अप्रैल को हुई | साहित्य में यह एक विस्मयकारी संयोग ही माना
जाएगा जिसका दूसरा उदहारण मिलना कठिन है |
राहुलजी के ४ पत्र ‘शिवपूजन सहाय साहित्य-समग्र’ (खंड-९) में
प्रकाशित हैं, जिनमें १ पं. विनोदशंकर व्यास के नाम है, और शेष २ में एक राजभवन, बम्बई से छपरा कॉलेज के पते
पर है (१२.५.४४) जिसमें राहुलजी ने सोवियत मित्र-मंडल के वार्षिक, बम्बई कांग्रेस के विषय में लिखा है : ‘उसमें सोवियत, उसके आदर्श, उसकी वीरता आदि के सम्बन्ध में हिंदी के स्वनामधन्य लेखकों
की कृतियों का पाठ करने का तै हुआ है |’ और फिर यह भी लिखते हैं – ‘ आपका सोवियत-प्रेम हमें प्रगट है | आप
इस कांग्रेस के लिए अपना सन्देश भेजने की कृपा करें |’ अंतिम
पत्र देहरादून से बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के पते पर है (२४.२.५९) जिसमें परिषद् द्वारा
प्रकाशित होने वाले उनके शोध-ग्रन्थ ‘दोहा-कोश सरहपाद’ की चर्चा है : ‘दोहा-कोश
की कापी मिल गयी | धन्यवाद |’
परिषद् से राहुलजी के तीन ग्रन्थ प्रकाशित हुए – १.‘मध्य एशिया का इतिहास’ (१९५६), २.‘दोहा-कोश सरहपाद’ (१९५७) और ३.‘दक्खिनी हिंदी-काव्यधारा’ (१९५९), और निदेशक के रूप में तीनों
ग्रंथों में शिवपूजन सहाय की लिखी संक्षिप्त भूमिकाएं प्रकाशित हैं | इन भूमिकाओं की कुछ पंक्तियाँ प्रमाण हैं कि दोनों साहित्य-महारथियों के परस्पर सम्बन्ध कितने समादर-पूरित
थे |
‘महापंडित श्री राहुल
सांकृत्यायन जी अंतरराष्ट्रीय ख्याति के विद्वान् हैं | इस युग के आप एक धुरंधर साहित्यकार हैं | साहित्य-शोध का क्षेत्र आपके अनवरत
अनुसंधानात्मक परिश्रम एवं लेखनी संचालन से बहुत उर्वर हुआ है | आपकी अथक लेखनी ने कितने ही ऐसे विषयों को सनाथ किया है, जिनकी ओर हिंदी संसार के विद्वद्जनों का ध्यान आकृष्ट नहीं हुआ था’ (१) | ... ‘श्री राहुल सांकृत्यायन के महत्त्वशाली
शोध कार्यों से हिंदी-साहित्य के इतिहास में
जो क्रांतिकारी परिवर्त्तन हुए हैं उनसे हिंदी जगत भली-भाँति परिचित है | श्री
राहुलजी की तरह मिशनरी स्पिरिट से काम करने वाले यदि और आज भी दो-चार व्यक्ति हिंदी में होते, तो
साहित्यिक शोध के क्षेत्र में आज अनेक विस्मयजनक कार्य हुए रहते | शोध की दिशा में राहुलजी के भगीरथ-प्रयत्नों को देख कर ऐसा अनुभव होता है कि जग-जंजाल से छुटकारा पाकर शोध-तत्पर होने से ही भाषा
और साहित्य का वास्तविक उपकार हो सकता है’ (२) | ... ‘ नए-नए खोजों से पूर्व-निश्चित सिद्धांत अथवा इतिहास का रूप प्रायः परिवर्तित होता रहता है | पहले भी ऐसा हुआ है और आगे भी यह होता रहेगा | विद्वदवर राहुलजी के अन्वेषणों से, पहले की बहुतेरी धारणाएं बदल चुकी हैं | उनके अनुसंधानों ने हिंदी साहित्य को भी प्रभावित किया है | उसके इतिहास में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्त्तन हुए हैं | पहले वीरगाथाकाल से ही उसके इतिहास का प्रारम्भ माना जाता था | किन्तु उनकी खोज से उस काल के चार-पांच सौ वर्ष पहले का सिद्धकाल माना जाने लगा | इस प्रकार हिंदी साहित्य के इतिहास का आरंभिक समय बारहवीं शताब्दी के बदले
सातवीं-आठवीं शताब्दी निश्चित हो गया’ (३)|
जन्म और मरण की समवर्तिता के अनुरूप ही शिवपूजन सहाय और
राहुल संकृत्यायन के जीवन में और भी कई प्रकार की समानताएं दृष्टिगोचर होती हैं | दोनों लगभग एक ही उम्र में गाँव से महानगर में आये, हालांकि
उसके बाद उनकी जीवन-रेखाएं अलग-अलग
दिशाओं में मुड़ गयीं | राहुलजी ने बौद्ध-भिक्खु का बाना धारण कर लिया और निरंतर दुस्साहसिक अंतरराष्ट्रीय यायावरी का
पथ अपनाया जब वे अपने जीवन-दर्शन की खोज में विश्व के
दुर्गम देशों के यात्री और प्रवासी बने | उसके बरक्स, शिवपूजन सहाय प्रारंभ से ही पत्रकारिता और साहित्य-लेखन
से जुड़ गए और लगभग १९१० से ही आरा से लेकर काशी और लहेरियासराय तक स्थिर गृहस्थ-जीवन में अभ्यस्त हो गए | लेखन की निरंतरता तो दोनों के
जीवन में प्रारम्भ से अंत तक बनी रही और परिमाण की दृष्टि से भी शिवपूजन सहाय का
लेखन बहुविधात्मक और पर्याप्त विपुल-राशि रहा | जीवन-संघर्ष तो, उस युग के अनुरूप, दोनों ही के जीवन का मूल-सूत्र रहा ही | एक और समानता दोनों के लेखन में लोकोपयोगी भाषा-प्रयोग
के स्तर पर भी रही | दोनों भोजपुरी भाषा-भाषी थे और अपने लेखन की भाषा को अधिकाधिक सामान्य बोलचाल की भाषा के समीप
रखने के पक्षधर थे | अपनी भाषा साधना के क्रम में
शिवपूजन सहाय की लेखन-शैली प्रारम्भ में अलंकरण-बोझिल अवश्य रही, लेकिन अगले ही दशक में अपने
आंचलिक उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ में शिवपूजन सहाय की भाषा ठेठ
देहाती समाज के बोलने-समझने वाली बोलचाल की भाषा के स्तर पर उतर
आई | राहुलजी की भाषा ने तो कभी शैलीगत-अलंकरण
का पल्ला ही नहीं पकड़ा | उनकी भाषा में वही स्वाभाविकता और तेज
प्रवाह का गुण सभी रचनाओं में बराबर एक-सा रहा | राहुलजी
की भाषा में कहीं किसी प्रकार की कृत्रिमता या बनावट-सजावट का बोध रहा ही नहीं | उसका स्वरूप बराबर, हर जगह, एक कच्ची सपाट सड़क जैसा ही रहा, जिसमें
गति का बोध सर्वोपरि था | दोनों लेखकों के गद्य-प्रयोग का यह अंतर उनके पूरे लेखन में प्रतिबिंबित होता है | अपने कथा-साहित्य में भी दोनों ही रचनाकारों ने जन-सुबोध भाषा का ही प्रयोग किया, जो किसानों और आम लोगों के
जीवन-स्तर से मेल खाती भाषा थी|
शिवपूजन सहाय की भाषा पर विचार करते हुए डा. परमानंद श्रीवास्तव ने कहा : ‘वह सच्चे अर्थों में
जनता के लेखक हैं, जनता की जीवनी-शक्ति को चरितार्थ करने वाले
लेखक हैं | उन्होंने
कहा था, मैं उनके लिए लिख रहा हूँ जो बहुत शिक्षित नहीं हैं, और उनके द्वारा लिखे साहित्य के विषय में जिनकी शिकायत है कि वे उनका लिखा समझ
नहीं पाते, जिस कारण उन्हें नीचे आकर उनके लिए लिखना है ताकि वे उसे
समझ सकें | प्रश्न है. जनता का साहित्य किसे कहते
हैं; जनता तक हमारा साहित्य पहुंचे इसके लिए हम क्या हिकमतें
अपनाने वाले हैं – ये सब बड़े प्रश्न हैं, और अलग-अलग समय में लेखक अलग-अलग तरह से इन पर विचार करते
हैं |’
निश्चय ही, इस अर्थ में राहुलजी भी, शिवपूजन सहाय और प्रेमचंद जैसे नवजागरण के कई और लेखकों की तरह जनता के एक बड़े
लेखक हैं | जिस परिमाण में और सामाजिक सरोकारों की जिस विविधता को लेकर
राहुलजी ने जैसी लोकोपयोगी और दिशा-निर्देशक विशाल साहित्य-राशि
की रचना की वह, संभवतः, पूरे हिंदी साहित्य में अनन्य
है |
हिंदी के इन दो समवर्त्ती लेखकों का पुनः
छपरा के बाद १९५४ में पटना में मिलना हुआ| राहुलजी तब अपनी तीसरी पत्नी
कमलाजी से विवाहोपरांत एक मकान खरीद कर मसूरी में रहने लगे थे | वे पटना आये थे और संभवतः आचार्य देवेन्द्र नाथ शर्मा के यहाँ ठहरे थे | शर्माजी पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में हमलोगों के समादृत शिक्षक थे
और पिताजी के कारण उनका मुझ पर विशेष स्नेह रहता था | वे
उन दिनों पटना कॉलेज के सामने वाली लेन में कोने वाले मकान में रहते थे | डायरी में २४.१०.५४ की प्रविष्टि में पिताजी
ने लिखा : ‘श्री राहुल जी ने स्वयं आकर मुझे दर्शन देने की कृपा की | मैं भी श्री अनूपलालजी मंडल के साथ उनसे मिलने शाम को प्रो. देवेन्द्र नाथजी शर्मा के घर गया | मंद-मंद
वर्षा भी होती रही | मंगलमूर्त्ति ने वहां जा कर
हमलोगों का फोटो खींचा |’
उन दिनों मैं पिताजी से मिलने वाले साहित्यकारों के चित्र
ज़रूर खींचा करता था| शर्माजी के यहाँ सहभोज वाली
यह गोष्ठी लगभग दो घंटे तक चली जिसमें मुख्यतः भाषा-विषयक
चर्चा ही होती रही| अगले दिन फिर साहित्य सम्मलेन में
संचालित ‘बच्चन देवी साहित्य गोष्ठी’ में
राहुलजी का भाषण ‘नागरी लिपि और हिंदी की समस्या’ पर
हुआ जिस विषय पर बीते कल शर्माजी के यहाँ देर तक चर्चा हुई थी | ‘बच्चन देवी साहित्य गोष्ठी’ की स्थापना कुछ ही महीने पहले
मेरी माता की स्मृति में साहित्य सम्मलेन में मेरे पिता के एक
अनुदान से हुई थी | यह राशि उनको परिषद् द्वारा ही ‘वयोवृद्ध
साहित्यिक सम्मान पुरस्कार’ के रूप में २१ अप्रैल, ’५४ को आचार्य नरेन्द्रदेव
द्वारा प्राप्त हुई थी और गोष्ठी का उदघाटन
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन ने ४ जुलाई. ’५४
को किया था| बाद के लगभग तीन दशकों तक यह गोष्ठी सम्मलेन द्वारा संचालित
होती रही और इसमें - पुरुषोत्तम दास टंडन, किशोरीदास वाजपेयी, चतुरसेन शास्त्री, भगवतीचरण वर्मा, जैनेन्द्र कुमार, विद्यानिवास मिश्र, प्रभाकर माचवे, धर्मवीर भारती आदि जैसे साहित्यकारों ने समय-समय
पर अपने व्याख्यान दिए थे |
इसी क्रम में एक बार और १९.१.’५६ को राहुलजी का भाषण ‘हिंदी साहित्य में गत्यावरोध’ विषय पर हुआ था | इनमें से अधिकांश भाषण उन
दिनों सम्मेलन द्वारा टेप किये जाते थे लेकिन बाद में उनका कोई पता नहीं चल सका |
संभवतः यही पटना में राहुलजी का अंतिम आगमन था | बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् से तब तक उनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं और
तीसरी भी प्रकाशनाधीन थी | परिषद् के सम्मलेन-भवन में ही स्थित होने के कारण पटना आने वाले सभी साहित्यकार परिषद् में तो
आते ही थे, सम्मेलन के साहित्यिक कार्यक्रमों में भी वे बहुधा सम्मिलित
हुआ करते थे | और पिताजी के सपरिवार सम्मलेन में रहने के कारण मुझको यह
सुविधा थी कि मैं उनमें से अधिकांश के स्नेह-संपर्क
से लाभान्वित हुआ करता था और उनमें से बहुतों के चित्र भी उतार लेता था |

ऊपर चित्र में : सर्वश्री अनूप् लाल मंडल, राहुलजी, छविनाथ पाण्डेय, शिवपूजन सहाय, डा. देवेन्द्र नाथ शर्मा
(डा. शर्मा के निवास पर मेरे द्वारा लिया गया चित्र | कापीराईट :डा. मंगलमूर्त्ति, १९५४)